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________________ - ~ ~ ~ - M _ अहारहवाँ सर्ग। इंई खाई थी । जो खिले हुए धवल कालोसे व्याप्त थी। वह ऐसी जान पड़ती थीं मानों तारागणोंसे मण्डित सुरपदवी (आकाश मार्ग) देवोंके साथ साथ स्वयं पृथ्वीपर आकर विराजमान होगई हैं ॥ ५ ॥ खाईके बाद चारोतरफ बल्लियोंका विस्तृत या मनोहर वन था। जो सुमनों (पुषों; दुमरे पक्षमें विद्वानों या देवा)से युक्त होकर मी अबोध था, बहुतसे पत्रोंसे आकुल-र्ण होकर भी असैन्य था, तथा विपरीत (पक्षियों से व्याप्त दूसरे पक्षमें विरुद्ध-शत्रु) "शकर भी प्रशंमा करने योग्ग था ॥ ६ ॥ इस वनके वाद चादीक बने हुए चार गोपुर-बड़े बड़े दरवाजोंसे युक्त सुवर्णमय प्राकार था जो ऐमा जान पड़ता था मानों चार निर्मल मेघोंसे युक्त स्थिर रहनेचारा अचिर प्रमाका समूह पृथ्वी पर आगया है ।। ७ ॥ पूर्व दिशामें जो उन्नत गोपुर था उसका नाम विनय था । दक्षिण दिशा में रत्नोंके तोरणोंसे युक्त नो गोपुर था उसका नाम वैजयंत था। पश्चिम दिशामें पूर्ण कदलीवजोंसे मनोहर जो गोपुर था उसका नाम जयंत था। उत्तर दिशामें देवोंसे घिरा हुआ है वेदीतट जिसका ऐसा नो गोपुर था उसका नाम अपराजित था ॥८॥ इन गोपुरोंकी उंचाई पर तोरण लगे हुए थे। उनके दोनों भागोंमें नेत्रोंको अपहरण करनेवाली विधिमै प्रत्येक एकसौ आठ आठ प्रकारके निर्मल अंकुश चमर आदिक मंगल द्रव्य रखे हुए थे नो कि भगवान्की विभूतिको प्रकट कर रहे थे ॥९॥ उनमें-गोपुरोंमें, जिनके बीच बीच में मोतियोंके गुच्छे लगे हुए हैं ऐसी मणिमय मालामें, टिकार्य, वा सुवर्णपय जाल लटकते हुए शोमा पा रहे थे। जो कि दर्शकोंकी दृष्टियोंको कैद कर देते थे ॥ १० ॥ उन गो
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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