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________________ . . सत्रहवा सर्गः। [ २५१ mininmin... - जिसकों उत्सवोंसे पर दिया है ऐसे राजमहलमें आकर इन्द्रोंने माताके ...आगे विराजमान अनन्यसम' उस जिनेन्द्रको नतमस्तक होकर देखा ७१ । जन्मकल्याणककी अमियक क्रिया करनेके लिये सौधर्म. स्वर्गके इन्द्रने माताकं आगे मायामय बालकको रखकर अपनी कांतिसे दुसरे कार्योको प्रकाशित करते हुए बाल मिनमगवान्को हर लिया। अहो! वुध भी अकार्य किया करते हैं । ॥ ७२ ॥ देवोंसे अनुगत इन्द्र, शत्रीक द्वारा दोनों हाथों से धारण किये गये -अर्थात् निसको शत्रीने दोनों हाथोंसे दिया और स्वयं धारण कर लिया ऐसे 'बाल निनभगवान्को शरद ऋतुके मेत्र समान मूर्तिक धारक-अर्थात् शुभ्र वर्ण और मईकी गंघस आ गई हैं भ्रमर पंक्ति जहां पर ऐसे ऐरावत हस्तीके स्कन्ध पर विराजमान कर, कमल-नीलकमलके समान कांतिके धारक आकाश मार्गसे ले गया || ७३ || कानोंको सुखकर और नवान मंत्रकी अनिके समान मन्द्र-गम्मीर तुईका शब्द दशोदिशाओंको रोकता हुआ सब जगह फैल गया । भगवान्के नामका ख्यापन करनेवाले और अनुगत है त्रिवर्ग (गाना, बनाना, नाचना) जिसमें ऐसे गानका आकाशमें प्रितकिन्नरेन्द्रोंने अच्छी तरह • अनुगान किया ! ७४ ॥ चन्द्रमाकी युति और कृतिके हरण करनेवाले, धवल बना दिया है दिशाओंको निसने, ऐसे छत्रको ईशान कल्पके स्वामीने .तीनलोकके स्वामीक ऊपर अच्छी तरह लगाया ॥७५ ॥ दोनों बाजुओंमें स्थित हस्तियोंपर बैठे हुए • सनत्कुमार तथा माहेन्द्रने हाथों में चार धारण किये जिनसे कि. समस्त. दिशाओं के व्याप्त हो जाने पर आकाश ऐमा मालपे पड़ने लगा मानों उसं जिनेश्वरका अभिषेक करनेके लिये स्वयं उद्धृतः
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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