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________________ पन्द्रहवाँ सगं । [ २१७ रूंगा, इत्यादि प्रकारसे ऐसा संकल्प करना कि जिससे चित्तका - मनका निरोध हो, इसको तीसरा- वृत्तिपरिसंख्यान तप समझ । यही तप तृष्णारूप धूलिको शांत करनेके लिये नलके समान है और यही अविनश्वर लक्ष्मीको वश करनेवाला. अद्वितीय मन्त्रवशीकरण है ॥ १३४ ॥ इन्द्रिरूपी दुष्ट घोड़ोंके मदका निग्रह करनेके लिये, निद्रा - प्रमादपर विजय प्राप्त करनेके लिये चौथा तप घृत प्रभृति पौष्टिक रसोंका त्याग बताया है । यह तप स्वाध्याय और योगकी सुखः पूर्वक सिद्धिका निमित्त बताया है ॥१३५॥ आगमके अनुमार शून्य गृहआदिकमें एकांत शय्या आसन के रखने को मुनिका पांचवां विविक्त शय्यासन नामका तप बताते हैं । यह तप स्वाध्याय व त्रह्मचर्या और योगकी सिद्धिके लिये माना है ॥ १३६ ॥ श्रीमऋतु आताप-धूपमें स्थित 'रहना - आतापन. योग धारण करना, वर्षाऋतु में वृक्षके मूलमें निवास करना, और दूसरे समय में अनेक प्रकारका प्रतिमायोग धारण करना, : हे राजन् ! यही उट्ठा कायक्लेश नामका उत्कृष्ट तप है। इसीको सब तपोंमें प्रधान तप समझ ॥१३७॥ प्रमादके वश जो दोप लगते उन दोषोंके सर्वज्ञकी आज्ञा के उपदेश के अनुसार जो विधान बना है 'उसीके अनुसार दूर करनेको प्रायश्चित पहला अंतरंग तप कहते 1. इसके दश भेद हैं। दीक्षा आदिककी अपेक्षा अधिक वयवाले पुरुषों में जो अत्यंत आदर करना इसको विनय नामका दूसरा अंतरंग तप कहते हैं । यह चार प्रकारका है, और मुक्तिके सुखका मूल है · -१३-८ ॥ अपने शरीर से, वचनोंसे या दूसरी समीचीन द्रव्योंसे आगमके अनुसार जो साधुओंकी उपासना करना इसको वैयावृत्य कहते हैं।
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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