SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AWANMANN महावीर चरित्र । पर भी भिक्षाका लाभ हो जानेकी अपेक्षा उसका लाभ न होना ही मेरे लिये महान् तप है ऐसा मानता है वह अलाम परीपहको जीतता है ॥११८|| एक साथ रठे हुए विचित्र रोगोंसे ग्रस्त होकर मी जो योगी जल्लोषधादिक अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त रहने पर भी सदा निस्पृह रहने के कारण नियमसे शरीरमें महान् उपेक्षाको धारण : करता है वही रोगपरीपहको जीतता है ॥ ११९ ॥ मार्ग में चलनेस : जिस मधुके तीक्ष्ण तृण-घास, कंटक, या कंकड़ आदिके द्वारा दोनों पैर विदीर्ण हो गये हैं फिर जो गमनादिक क्रियाओंमें प्रमाद रहित होकर प्रवृत्ति करता है, या अपनी दूसरी क्रियाओंमें विधि : पूर्वक प्रवृत्ति करता है उस मुनिरानके तृण परीपहका विनय समझो ॥ १२० ॥ निस योगीने ऐसा शरीर धारण कर रक्खा है कि जो प्रतिदिन चढ़ती हुई मलसंपत्ति-धूल मट्टी आदिके द्वारा ऐसा मालूम पड़ता है मानों वल्मीक हो, तथा जिसमें अत्यंत दुस्सह खान प्रकट हो रही है, फिर भी जिसने मरण पर्वतके लिये स्नान करनेका त्याग इस भयसे कर दिया है कि ऐसा करनेसे-स्नान करनेसे जलकायिक जीवोंका वध होगा। उस योगीके मलकृत। परीपहरू विजयका निश्चय किया जाता है ।। १२१॥ जो अपने.." ज्ञान या तपके विषयमें कभी अमिमान नहीं करता, नो निंदा या प्रशंसादिकमें समान रहता है, वह प्रमाद रहित धीर मुनि सत्कार : पुरस्कारपरीषहका जेता होता है ॥ १२२ ॥ समस्ने शास्त्र समुद्रको पार कर गया है फिर भी नो साधु " पशु समान अल्पज्ञ.नी दूसरे मनुप्य मेरे सामने तुच्छ मालूम पड़ते हैं ॥ इत्यादि प्रकारसे अपने ज्ञानका मद नहीं करता है। मोहं वृत्तिको नष्ट कर देनेवाले उस :
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy