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________________ महावीर नरित्र | २०६ ] सर्व काल में योगों की विशेषताएं आकर आत्माके समस्त प्रदेशों एक क्षेत्रावगाहरू प्रवेश कर अनंनं प्रदेशों से युक्त होका कर्म निको प्राप्त होते हैं उनको प्रदेश सातावेदनी, शुभ अयु, शुभ मि । भगवान्ने पृण्य धर्म और बाकी कर्म बताया है । अब श्रेष्ठ संवरतत्वका न ॥ ८० ॥ अमोघ - जिनके वचन आश्राके अच्छी तरह रुक जानेको हो और भावकी अपेक्षा दो में होना है- अर्थात् 1.. करते हैं ॥ ७८ ॥ इन कप गोत्र : इनको नाम और शुभ सर कपकी निश्च अच्छी तरह वर्णन करेंगे होसके ऐमे जिनगनने र कहा है। के दो हैं एक द्रयसंवर, दूसरा भावसंवर। इन दोनों ही प्रहारकेदर्शी: सुनिलोग ही प्रशंश करते हैं- उनको आदरकी दृष्टिसे देखते हैं ॥ ८१ ॥ संसारकी कारणभूत क्रियाओंके छूट जानेको गुनीन भावसंबर कहा है । और उसके छूटनेवर कर्मपुल के ग्रहणका जाना इसको निश्चयसे द्वापर माना है ॥ ८२ ॥ यह सारभूत संचर गुप्ति समिति धर्म निरं र अनुप्रेक्षा परोपनय और चारित्र द्वारा होता है । विश्वके ज्ञाता जिन भगवान्ने कहा है कि तरसे निर्जरा भी होती है । अर्थात् तप संगर और निर्जरा दोनोंका कारण हैं ॥ ८३ ॥ समीचीन योग निग्रहको गुप्ति कहते हैं । दोषरहित इस गुप्तिको विद्वानोंने तीन प्रकारका बनाया है- एक वाग्गुप्ति-कांयगुप्ति तथा मनोगुप्ति | समीचीन प्रवृत्तिको समिति कहते हैं । इसके पांच मे हैं - ईर्यासमिति, भाषासमिति, आदाननिक्षेपतमिति ॥ ८४ ॥ विद्वानोंने धर्मको लोकमें दश प्रकारका बताया है- उत्तमक्षा, सत्य, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्प, ब्रह्मचर्यं ॥ ८५॥ 1
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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