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________________ पन्द्रहवाँ सर्ग 1 [२०१ कारण है और इससे विपरीत प्रवृत्तिको भगमके वेत्ता शुभ नाम कम आत्रका कारण बताते हैं ॥ ४५ ॥ सम्पत्ती शुद्धि, विनयकी अधिकता, शील और व्रतोंमें दोप न लगाकर चर्या करना, उनका पालन करना, निरंतर ज्ञानोपयोग शक्तिके अनुपार उत्कृष्ट त्याग और तप, संसार से भीरुता, साधुओं की समाधि - कष्ट आदिक दूर करना, भक्तिपूर्वक वैयावृत्य करना, जिनागम आचार्य बहुश्रुत और थुनमें भक्ति तथा वात्सल्यका रखना, पडावश्यकको कभी न छोड़ना, मार्ग - जिमार्गकी प्रकटरूपसे अत्यंत प्रभावना करना, इन सोलह बातोंको आर्य - आचार्य अत्यंत असुन तीर्थकर नामकर्मके आस्त्र व का कारण बताते हैं ॥४६ ४८|| अपनी प्रशंपा, दूसरेकी अत्यंत निंदा तथा सद्द्भुत गुणका ढकना और असद्मा गुणोंका प्रकट करना, इनको नीचगोत्र कर्म अत्र के कारण बताते हैं ||४९ ॥ नीचगोत्र कर्मके आंख के जो कारण हैं उनसे विपरीत वृत्ति, जो गुणोंकी अपेक्षा अधिक हैं उनसे विनश्से नम्र रहना, मद और मानका निरास, इनको जिन भगवान् के उच्चगोत्र कर्मके आवका कारण बताया है ॥ ५० ॥ आचार्य दानादिकमें विघ्न करनेको अंतराय कर्म का कारण बताते हैं । पुण्यके कारण जिस शुभयोगको पहले सामान्यसे बता चुके उसको विस्तारसे कहता हूं | सुन ! ॥ ५१ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इनके त्यागको न कहते हैं । एक तो एक देश दूसरा सर्व देश । हे भद्र ! सत्पुरुषने पहलेको अणुत्रन और दूसरेको महावन कहा है ॥ ५२ ॥ इन तोकी स्थिरता के लिये सर्वज्ञ भगवान्ने पांच पांच भावनायें बताई
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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