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________________ ___ ग्यारहवां सर्ग। [१५७ निर्भय ! इस मवसे दशमें मवमें तू. भारतवर्षमें मिनेन्द्र होगा। यह सब बात हमसे कमलाधर (लक्ष्मीघर) नामके जिनेश-मुनिराजने कही. है॥४८॥ हे शमरत ! उनके ही उपदेशसे हम तुमको प्रतिबोधः देनेके लिये आये हैं। मुनियोंका हृदय अत्यंत निस्पृह होता है तो मी भव्य जीवोंको बोध देनेकी उसको स्पृहा रहती ही है ॥४९॥ जिसने तत्वार्थका निश्चय कर लिया है और जिसने अपने चरणोंको प्रणाम किया है ऐसे सिंहको पूर्वोक्त प्रकारसे चिरकार-बहुत देर तक तत्त्वमार्ग-मोक्ष मागकी शिक्षा देकर वे मुनि आदरसे उस'सिंहके शिरका हार्थोके अग्रमागस बार बार स्पर्श करते हुए जानेके . लिये उठे..५० ॥ चारणऋद्धिके धारक दोनों मुनियों ने अपने मार्गपर जाने के लिये मेघमार्गका आश्रय लिया । अर्थात् दोनों मुनि • आकाशमार्गसे चले गये। और इधर प्रेमसे उत्पन्न होनेवाले आंसु ओंके कोंसे जिसके नेत्र भींज रहे हैं ऐसा वह सिंह उनको बहुत देर तक देखता रहा ।।५१|| नव वह मुनियुगल वायुवेगसे अपने (सिंहके) दृष्टिमार्गको छोड़कर चला गया-दृष्टि के बाहर हो गया तब वह सिंहराज अत्यंत-खेदको प्राप्त हुआ।सत्पुरुषों का विरह किसके हृदयमें व्यथा नहीं रमन्न करदेता है । ।५रा मृगराजने अपने हृदयसे मुनिवियोगसे उत्पन्न हुए शोंकके साथ साथ समस्त परिग्रहका दूर कर उनके निर्मल चरणोंके चिन्हसे पवित्र हुई शिलापर अनशन-भोजनादि त्याग सल्लेखनामरण धारण किया ॥ ५३॥ एक पसवाड़ेसे पड़कर निसने 'पत्थर शिलाके ऊपर अपने शरीरको रख रक्खा है ऐसा वह मृगेन्द्र दंडकी तरह विल्कुल. चलायमान न हुआ। मुनियों के गुणगणोंकी भावनाओंमें आशक्त हुआ। उसकी लेश्यायें प्रतिसमय-उत्तरोत्तर
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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