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________________ ग्यारहवां सर्ग। [१५३ · यमसे:कामके दोषोंको समझ लेता है। अर्थात् उसको यह मालुम हो जाता है कि मैंने नो पूर्वमवमें पर स्त्री या वेश्या आदिकसे 'गमना किया था उसका यह फल है ॥ २० ॥ मेष महिप (मेंसा) मत्तहस्ती तथा कुकट (मुगा) असुरों के शरीरको उनके आगे जल्दीर होता हुआ श्रमसे विवश हो जानेपर भी क्रोधसे लाल नेत्र करके दूसरोंके साथ खूब युद्ध करने लगता है ॥ २१ ॥ अम्बरीप जा'तिके असुरोंके मायामय हायोंकी तर्ननियोंके अप्रमागके तनमय दिखानसे जिनका हृदय फट गया है ऐसे वे नारकी डरके मारे दोनों हाथों और दोनों पैरोंसे रहित होनेपर भी शीघ्र ही शाल्मली वृक्ष ‘पर चढ़ जाते हैं ।। २२ ।। अपनी बुद्धिस ' यह सुख है। वा .इससे सुख होगा। ऐसा निश्चित समझकर जिस जित कामको करते हैं व सत्र काम नियमसे उनको शीघ्र अत्यंत दुःख ही देते हैं। 'नारकियोंको सुखकी तो एक कणिका भी नहीं मिलती ।। २३॥ इसप्रकारके विचित्र दुःखोंसे युक्त नारक पर्यायसे निकलकर तू यहां पर फिर सिंह हुआ। पूर्वद्ध तीत्र दर्शनमोहनीय कर्मके निमित्त से यह प्राणी चिरकालसे कुगतियों में निवास कर रहा है ॥ २४ ॥ जो तुझे मालूम हो गया है-अर्थात जिसको सुनकर तुझें नातिस्मरण हो गया है। इस प्रकारके तेरे भवोंका हे मृगेन्द्र ! खूब अच्छी तरहं वर्णन किया । अब आत्माका हित क्या है उसका मैं वर्णन करता हूं सो तू निर्मल बुद्धि-चित्तसे. सुन ॥ २५ ॥ ... मिथ्यादर्शन अविरति प्रमादजनित दोप कषाय और योगोंकि साथ २ इनरूप आत्मा निरन्तरं परिणत होता है । इन परिणामोंसे ही इसके बन्ध-कर्मबन्ध होता है.॥ २६ ॥ इस कर्मवन्धके दोषसे
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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