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________________ १०८] - महावीर चरित्र । पराभव कमी नहीं होता। यथार्थमें मनदियोंने उसी जीवनको प्रशंसनीय माना है जो परामवसे खाली है-जिसका कमी तिरस्कार नहीं हुआ ॥ १८ ॥ मनुष्य तभी तक सचेतन है, और तभी तक वह कर्तव्याकर्तव्यको समझना है, एवं तभी तक वह उन्नत मानको भी धारण करता है, जबतक कि वह इन्द्रियों के वश नहीं होता ॥१९॥ चाहे जितना मी कोई उन्नत क्यों न हो यदि वह स्त्री रूपी पाशसे बंधा हुआ है तो उसको दूसरे लोग पादाक्रांत कर देते हैं। निपके चारो तरफ बेलिपटी हुई है ऐसे महान् के ऊपर क्या बालक भी झटसे नहीं चढ़ नाता ॥२०॥ ऐमा कौन मारी है कि जिमको इन्द्रियोंके विपयोंमें आशक्ति आपत्तिका स्थान-कारण नहीं होती। मानों इसी बातको बताती हुई या हाथियों की डिडिम-चनि-हाथियोंके उपर वननेवाले नगाड़ोंका शब्द-विद्वानोंके कानों में आकर पड़ता है ॥२१॥ देवो जरासे सुखके लिये विद्याधरोंके अधिरति ज्वलननटीसे प्रेम मत करो। तुपको इम नाहकी स्त्री तो फिर भी मिल नायगी पर उस तरहका प्रतापी तेनबी मित्र फिर नहीं मिलेगा ॥२२॥ आपके विवाहके मालूम पड़नेपर उसी बस्न बहुतसे विद्याघर तुमको मारनेके लिये उठे थे; पर स्वर स्वामीन ही उनको -रोक दिया था। यह और कुछ नहीं, महात्माओंकी मंगतिका · फल है ॥२॥ अंत्र मेरे साथ जयप्रभाको स्वामी की प्रसन्नताके लिये उनके पास अपने मंत्रियों के साथ २ भेन दी'निये । दुसरेकी स्त्रियोंसे सर्वथा निःस्पृह रहनेवाला वह स्वयं यात्रना करता है। इससे और अच्छी बात क्या हो सकती है ?" ॥२४॥ जब इस तरहके हृदयको फड़का देनेवाले वचनोंको कहकर
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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