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________________ महावीर चरित्र | १०६ ] cou Imagin angl मी सूचित करते हैं कि भाप में ये दोनों गुणगण और दिव्यतादुर्लभता से रह रहे हैं ||२|| सदा समुन्नत रहनेवाली यह आकृति आपके मानसिक धैर्यको प्रकट करती है । समुद्री पंक्ति क्या उसके नलकी अति गम्भीरताको नहीं बताती ॥१॥ जिनमें अन्दररसकी छटा छूट रही है ऐसे ये आपके शीतल वचन हृदयके कठोर मनुष्यको भी इसतरह पिवा देते हैं, जैसे चन्द्रमाकी किरणेन्द्र कांत मणिको || १ || अधिक गुणके चाक आप यदि अवीव से अच्छी तरह स्नेह करें तो क्या मद्गुणोंसे प्रेम करनेवाला वह मत्रवर्ती साधुताको स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि जगतमें साधुपुरुष परोक्ष- बंधु होते हैं ||१|| समुद्र और चन्द्रमाकी तरह आप दोनों को निःसंदेह ऐना सौहार्द (मित्र) कर लेना ही युक्त है कि जिसका उदय अविनश्वर हो-जो कभी टूटनेवाला न हो-तथा जो परस्पर मेंएक दूसरे के लिये क्षम-योग्य हो ||६|| कुशल-बुद्धियोंका कहना है कि जन्मका फल गुणोंका अर्जन करना - इंडा करना-संग्रह करना ही है। और गुणोंका फल महात्माओं को संतुष्ट करना है . इसी तरह महात्माओंके संतुष्ट करनेका फल समस्त सम्पत्तिका स्थान है ॥७॥ जो कार्य कुशल होते हैं वे पहले से ही केवल कल्याणक किये निर्मल बुद्धिरूपी सम्पत्ति से सब तरफसे अच्छी तरह विचार करके ही किसी भी कामको करते हैं; क्योंकि इसतरहसे जो क्रिया.. की जाती है वह कभी विघटित नहीं होती ॥८॥ जो अपने मार्गस - उल्टा ही चलता है क्या वह अभीष्ट दिशाको पहुँच सकता है ? दुर्नय - खोटे व्यवहार में फलको भागे देखकर क्या उसका मन खेद-को नहीं पाता है ? ॥९॥ जो नीतिके जाननेवाले हैं वे, स्वामी मित्र
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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