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________________ | श्री ऋषभदेव । आपकी इस पुण्यमई स्मृतिमें दक्षिण भारतमें श्रवणबेलगोल आदि स्थानोंपर आपके दीर्घकायक (६० फीट ऊंचाईके) प्रतिबिम्ब आज भी देशविदेशके यात्रियोंको संसारकी नश्वरता और संयमकी उत्तम ताका उपदेश देरहे हैं। भगवान ऋषभदेवको प्रथम भोजन हस्तिनागपुरके राजा श्रेयांसने इक्षुरसका कराया था। अन्तमें जैनधर्म और सभ्य भारतीय सभ्यताका उद्योतकर आपने श्री कैलाशपर्वतसे विजयलक्ष्मी - प्राप्तकर परमानन्दमय अनन्तसुख प्राप्त किया था । " हिन्दूशास्त्रोंमें भी आपका वर्णन है । आश्चर्यका विषय है'कि नैनियोके आदि गुरुको हिन्दुओने अपना आठवां अथवा नवमां अवतार माना है। श्री ऋषभदेवने ही पहिले पहिल अक्षरलिपिकी उत्पत्ति की थी जैसा कि हिन्दी विश्वकोष भाग प्रथम पृष्ट ६४ में श्री अनुमान किया गया है कि " ऋषभदेवने ही संभवतः लिपि - विद्याके लिए लिपिकौशलका उद्भावन किया था । ....... ऋषभदेवने ही संभवतः ब्रह्मविद्या शिक्षाकी उपयोगी ब्राह्मी लिपिका प्रचार किया हो न हो, इसीलिए वह अष्टम अवतार बताए जाकर परिचित हुए।" इस कोषके तृतीय भाग पृष्ट ४४४ पर ऋषभदेवके विषयमें लिखा है कि "भागवतोक्त २२ अवतारो में ऋषभ अष्टम हैं । इन्होंने भारतवर्षाधिपति नाभिराजाके औरस और मरदेवीके गर्भ से जन्मग्रहण किया था । भागवतमे लिखा है कि जन्म लेते ही ऋषभदेवके अंग में सब भगवत लक्षण झलकते थे । सर्वत्र समंता, उपशम, वैराग्य, ऐश्वर्य और महैधर्यके साथ उनका प्रभाक दिन दिन बढ़ने लगा | वह स्वयं तेज, प्रभाव, शक्ति, उत्साह, कान्ति और यशः प्रभृति, गुणसे सर्व प्रधान बन गए... ऋषभदेवने
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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