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________________ ૨૦૨ भगवान महावीर | चढ़ाती जारही है। वह बाह्य बातों में पगीहुई परपदार्थोंको अपना रही है, इसलिए वह बहिरात्मा है। जब काललब्धिकी शुभप्राप्तिसे इस बहिरात्माको अपना भान होजाता है और वह जान जाती है कि मैं अपने पौगलिक शरीरसे नितान्त विभिन्न हूं; मेरा पौगलिक पदार्थोंमें कुछ भी संबंध नही है: मै तो एक विनिर्मल, शुद्ध स्वभावकाधारी परमसुखी आत्मा हूं; तब वह इस भेदविज्ञानको पाकर अन्तरात्मा होजाती है । अन्तरात्म बुद्धिको प्राप्तकरके जब वह आत्मा अपने भेदविज्ञानके निर्मल ज्ञानको उत्तरोत्तर बढ़ाती जाती है, और निर्विकल्प ध्यान करती है तब ही " क्षपकश्रेणी में आरूढ़ होकर चारित्रमोहका नाश करती हुई, बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानमें पहुंच जाती है। वहां कुछ ठहर एकत्त्व वितर्क अविचार 'शुरुध्यानके बलसे स्वयं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्मोका नाश करके संयोगकेवली परमात्मा होजाती है। तब उस अवस्थामें उन्हें सवज्ञ वीतराग हितोपदेशी आप्तवक्ता या परहन्त कहते हैं। फिर आयु पर्यन्त उनके विहार व धर्मोपदेशसे संसारी जीवोका अज्ञान मिटता है । पश्चात् वही अर्हन्त शेष चार अघातियोसे छूटकर सिद्ध परमात्मा होजाते हैं । इन्हीको सकल और निकल परमात्मा तथा जिनेन्द्र कहते हैं । " यही सिद्धात्मा लोकके शिखिर पर अवस्थित दूसरे प्रकारके जीव हैं। इस प्रकार दोनों प्रकारके जीव अनादिनिधन अक्रत्रिम हैं, और अपनी शुद्धावस्थामें सर्वदर्शी और सर्वानन्दपूर्ण हैं, एवं अपरिमति वल वीर्य्य संयुक्त हैं। उनकी उत्पत्ति पुद्गलसे नहीं है। वे परमोत्कृष्ट चेतना स्वरूप हैं, अमूर्ती है, इन्द्रियजनित नही है और पूर्ण निराकार भी नहीं हैं,
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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