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________________ भगवानका दिव्योपदेश। १९७ सत्यके अमृतकी वर्षा होती थी। आपके नैतिकचारित्रके विषयमें कहना होगा कि आप साक्षात् शील संयमकी प्रति--मूर्ति थे । आप एक उत्कृष्ट धर्मप्रचारक थे। धर्मका स्वरूप स्वयं इच्छा विना ही आप द्वारा वस्तुस्वरूपमें प्रगट होता था। और उपदेशसे उदाहरण विशेष प्रभावक होता है, इसलिए जिस यथार्थ नियम व सिद्धान्तका आप प्रचार करते थे, वह स्वयं आपके विमल चारित्रसे प्रगट हो जाता था अर्थात् जिस धर्म और आचारका आपने निर्दर्शन, कराया था, उसपर आप स्वयं चल चुके थे। उसका स्वरूप आपके चारित्रसे दर्शता था। सहिष्णुता और संतोष भी आपमें अपूर्व था। दुष्ट जीवोंके दुष्ट व्यवहारसे आप किचित् भी विचलित नहीं होते थे। हम देख चुके हैं कि रुद्रने आपको ध्यानसे विचलित करनेके लिये कितना त्रसित न किया था, परन्तु इनकी अपूर्व संतोषवृत्तिके समक्ष उसे नतमस्तक होना पड़ा था। श्रावकावस्थामें आपकी अपने मातापिताओके प्रति गाइ भक्ति थीं। और आप एक परम आनन्दकारी सुपुत्र थे, यह इसीसे प्रगट है कि आपने मातापिताकी सम्मतिसे दीक्षातक ग्रहण की थी। इन्हीं जैसे अपूर्व गुणोके कारण ही भगवान महावीरने परमोकष्ट तीर्थकालकी प्रवृत्ति की और स्वयं विशाल परमात्मपदको प्राप्त हुए थे। ___ "श्री जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण" (एष्ट १८) के निम्नवर्णनसे भगवानके चारित्रप्रभावका हमको यथार्थ दृश्य प्रगट हो जाता है। वहां लिखा है कि " जिन महानुभावोने भगवान महावीरका वचन सुना या उन्हें प्रत्यक्ष देखा उनकी प्रवृत्ति मिथ्या धर्मोंसे सर्वथा हटगई.॥९॥ मलमूत्र रहित शरीर १, स्वेदका
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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