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________________ , १६६ भगवान महावीर । Wwwww उद्देश्य क्या है ? इन समस्त प्रश्नोंका उत्तर बौद्धधर्म में अनूठा पर भयावह है, अर्थात् 'हम नहीं हैं'। तो क्या हम छाया में श्रम परिश्रमकर रहे हैं ? और क्या अंधकार ही अन्तिम ध्येय है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें क्यों जीवनके साधारण इन्द्रिय सुखोंका निरोध करना चाहिए ! केवल इसलिए किशोकादि नष्टता और नित्य मौन' निकटतर प्राप्त होजाऐं । यह जीवन एक प्रान्तवादका मत है और दूसरे शब्दोंमें उत्तम नहीं है । अवश्य ही ऐसा आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको संतोषित नहीं करसक्ता । बौद्धमतकी आश्चर्यजनक उच्चति उसके सैद्धान्तिक विनश्वरतावाद (Nihilism) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी " मध्यमार्ग" की तपस्याकी कठिनाईके कम होनेपर ही थी ।" (See Jain Gazette Vol. XVII No. 5). < सुतरां बुद्धदेवके आचार नियमोंकी अपूर्णता और असार्थकता 1 इससे भी प्रकट है कि उसने मृतपशुओंके मांसको खानेका भी निषेध नहीं किया ! देशके प्रसिद्ध नेता लाला लाजपतरायजी भी इस बातको स्वीकार करते और कहते हैं कि "बौद्धोंमें मृतपशुक्रे मांस खानेका निषेध नही । ब्रह्मामें, सिहलमें, चीन, जापानमे, सारांश यह कि सभी बौद्ध देशोंमें बौद्ध लोग मांस खाते हैं। परन्तु कोई भी जैन मांस नही खाता। जैनोंका सबसे बड़ा नैतिक सिद्धान्त अहिसा है ।" (देखो 'भारतवर्षका इतिहास' ष्ष्ट १३१) इस प्रकार दुबके "मध्यमार्ग" ने तपस्या की कमठाई और इंद्रिय सुखकी सुविधाजनक नियमित उपभोगकी आज्ञा देनेके एवं उनकी चाणी ललित और भिष्ट होनेके कारण उन्नति पाई ।
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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