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________________ ANAMAMA १६२ भगवान महावीर। ऐसा सर्वज्ञ, भगवानने कहा है। इसलिए मुख्यतासे कोंकी निराका कारण आत्मानुभव है । इसके होनेहीसे यह आत्मा निर्वाणका भागी होसका है । आत्मानुभवसे शून्य पुरुष कैसा भी व्यवहारमे सावधान हो, परन्तु कर्मोंसे मुक्ति नहीं पा सका । जब कि आत्मानुभवका दृढ़ अभ्यासी सोते हुए भी कर्मोकी निर्जरा करता है । इस तरह तात्पर्य यह निकालना चाहिए कि कौक बन्धनसे छूटनेका उपाय मात्र एक आत्माका सच्चा श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र है-निश्चय रत्नत्रय ही मोक्षका साधक है। बुद्धदेवने इस ओर ध्यान नहीं दिया था। इसीकारण कठोर तपश्चरण करनेपर.मी उनको यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई। तपश्चरणमें उनको अश्रद्धासी होगई और उन्होंने उसकी कठिनाईको इन शब्दोंमें स्वीकार किया:___ "दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिए। अति (BKoess) दुःख है। तप एक प्रकारकी अति है, और दुःखवर्धक है । उसके सहन करनेमें भी कोई लाभ नहीं है। वह फलहीन है।" ( The Encyclopaedea of Religion and Ethics Vol: II. P. 70.) और उनको विश्वास भी होगया कि " न इन कठिनाइयोंकि सहन करनेवाले नागवार मार्गसे मैं उस अनोखे और उत्कृष्ट पूर्ण (आयर्याके) ज्ञानको, जो मनुष्यकी बुखिके बाहर है, प्राप्तकर पाऊंगा। क्या यह सम्भव नहीं है कि उसके प्राप्त करनेका कोई अन्य मार्ग हो?" (Tod P. 70.) अतएव इसी समयसे उनन शरीरकी रक्षा करना पुनः प्रारंभ कर दी थी, जिसके कारण वह
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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