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________________ भगवान महावीर और म. बुद्ध। १५९ तरल या वहनेवाला पदार्थ है, उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकारकी घोषणा करके उसने संसारमें संपूर्ण पापकमकी परिपाटी चलाई । एक पाप करता है और दूसरा उसका फल' भोगता है, इसतरहके सिद्धान्तकी कल्पना करके और उससे लोगोंको करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मरा" इन वाक्योंमें बोडके क्षणिकवादकी ओर इशारा किया गया है। जब संसारकी सभी वस्तऐं क्षणस्थायी हैं, तब जीव भी क्षणस्थाई ठहरेगा और ऐसी अवस्थामें एक मनुष्यके शरीरमें रहनेवाला जीव जो पाप करेगा उसका फल वही 'जीव नहीं, किन्तु उसके स्थान पर आनेवाला दूसरा जीव भोगेगा। - (जनहितेपी भाग १३ अंक ५-६-७ पृ०२५१-२५२) इस प्रकार हमारे पूर्वप्रकरणमें कथित कथन-कि बुद्धदेव अपने प्रारंभिक जीवनमें जैनधर्मानुयायी रहे थे, का स्पष्टीकरण होता है, निसको स्वयं बुद्धदेवने भी स्वीकार किया है जैसे पहिले प्रगट किया जा चुका है, परन्तु उधर माथुर संघके प्रसिद्ध आचार्य अमितगति लिखते हैं:- . 'रुष्टः श्री वीरनाथस्य तपस्या मौडिलायनः । शिष्यः श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ ६ ॥ शुद्धोदनसुतं बुई परमात्मानमब्रवीत् ।' अर्थात् पार्श्वनाथकी शिप्य परम्परामें मौडिलायन ( मौद्विलायन ) नामका तपस्वी था। उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र वुद्धको परमात्मा कहा। इस प्रकार देवसेनाचार्य और आचार्य अमितगतिकी बतलाई हुई
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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