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________________ M ' अणिक और चेटक। १४५ उसके विस्मयका, मारावार न रहा, उसने देखा कि वह अविचल ध्यानी मुनि अपने ध्यानसे जरा भी चल नहीं हुए हैं, और वह । मृत सर्म उनके गलेमें पड़ा हुआ है। यद्यपि उसमें अब कीड़ियां लग गई हैं। मुनिराज मला चल कैसे, होसक्के थे, क्योंकि नियम - है कि जबतक उपसर्ग रहे तबतक मुनिको ध्यानारूढ़ रह बारहमावनाओंका चिन्तवन करना चाहिये। सजा और रानीने समान भावसे: मुनिको नमस्कार, किया, क्योंकि रानाके हृदयपर इस दृश्यका बड़ा प्रभाव पड़ा था। और उनके गलेसे सर्प अलहदा कर दिया और मुनिरानके शरीरके तापको दूर करनेके लिए चन्दनसे उनका अभिषेक किया !, मुनिरानने समयानुसार मौनवृत त्यागकर रानारानीको समान भावसे धर्मवृद्धि दी जिससे श्रेणिकका हृदय परम शांतिका अनुभव करने लगा और वे अवाक रह गए। उनको मुनिमहाराजके शत्रु मित्रसे समान वर्तावके कारण उनपर बड़ी भक्ति होगई । मुनिराजने धर्मवृद्धि दे उनसे कहा कि: "विनीत मगवेश ! संसारमें यदि जीवोंका परम मित्र है तो धर्म ही है। इस धर्मकी कपासे जीवोंको अनेक, प्रकारके ऐश्वर्य मिलते हैं, उत्तम कुलमें जन्म मिलता है और संसारका नाश भी धर्मफी ही कपासे होता है इसलिए उत्तम पुरुषोको चाहिए ' कि वे सदा उत्तम धर्मकी आराधना करें।" राना श्रेणिकका हृदय धर्मरससे भीन रहा था। उन्होंने उन परमज्ञानी मुनिके निकट अपने पूर्वभव सुने । मुनिसे आपको .. मालूम हो गया कि पूर्वभवमें वे सूर्यपुरके खामी सुमित्र थे। इनके
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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