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________________ 7 ९२ भगवान महावीर । हो। तुमने कभी भी सूरजकी गर्मी सर्दी नहीं सही है। तुम कैसे धूपकी तपसको सहन कर सकोगे ? तुम्हारा सुकुमार शरीर और कोमल अवयव दिगम्बरीय दीक्षाके कठिन परीषहोको नहीं सह सकेंगे ! तुम तो राज्यकीय महलोंमें रहो और पिताजीको राज्यमार संभालने में सहायता दो। वैसे मैं जानती हूं कि वत्स ! तुम्हारा जन्म संसारके सामान्य मनुष्योंकी भांति इन्द्रियतृप्तिमे ही सुख माननेको नहीं हुआ है। तुम जगतको विषयवासनाके कूपसे निका-लने, प्रत्येकको स्वतंत्रताका पाठ पढ़ा उसे स्वावलम्बी बनाने और लोगोंको यह बतानेके लिए कि मनुष्य निज आत्माका आश्रय लेकर अपनी गुप्त शक्तिको प्रकाशमें लाकर ही खाधीनता स्वतंत्रत्ता - मोक्ष पासक्ता है; अवतीर्ण हुए हो । परन्तु नंदन | अभी तुम्हारी अवस्था दुर्धर तपश्चरण करनेके योग्य नहीं है । परन्तु भगवान - महावीर अब रुकनेवाले नहीं थे । उनके वैराग्यको देवोंने आकर और पुष्ट कर दिया था । वे मातासे इस प्रकार उत्तरमें "" L लगे कि “ पूज्य मातुश्री !. संसार इन्द्रजालवत् है, इसकी वस्तुऐं सांसारिक मोहान्धव्यक्तियोंको देखनेमें अपनी असलियतसे विभिन्न दीखतीं हैं । इसलिए मनुष्यको रागको छोड़कर सन्यास धारण करना चाहिए, जिससे मोक्षकी प्राप्ति हो । नगके दृश्य "पदार्थ जलबुदबुदकी तरह नष्ट होजानेवाले है । रोग, शोक, परिताप सदा मनुष्यके साथ लगे रहते हैं । ये शारीरिक सौन्दर्यको नष्ट कर देते है । मृत्यु हरघड़ी व्याधि भांति पीछे लगी रहती है और अवसर पाते ही फौरन शस्त्रप्रहार कर देती है, फिर आत्माके साथ कुछ नहीं रहता, रहता है तो केवल अपना किया हुआ
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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