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________________ मण्डल)। हम सब मिलकर अपने हायसे पकाते थे, बरतन भी मॉजते थे, और मसाले आदिका व्यवहार नहीं करते थे। रोटी तो मुझे ही बनानी पड़ती थी। वह जैसी अच्छी बनती थी कि लीगके बाहरके आदमी भी खाने आते थे। हमारे क्लबमें सतोष बाबू मजूमदार थे। वे अमेरिकासे अध्ययन करके आये थे। मैंने अक दिन कहा कि बरतन मॉजनेसे और कमरा साफ करनेसे हमारी आत्मा भी साफ होती है । वे हँस पड़े और कहने लगे -'हृदयको साफ करना जितना आसान नहीं है ।' कुछ भी हो हम लोगोंका बन्धुभाव खूब बढ़ा । शान्तिनिकेतनने हमें अपने प्रयोगके लिो पूरा सुभीता कर दिया था। जब गांधीजी वहाँ आये, तो अन्होंने हमारा यह कार्य देखा। बड़े खुश हुअ किन्तु सुनका स्वभाव तो बड़ा ही लोभी । कहने लगे-'यह प्रयोग अितने छोटे पैमानेपर क्यों किया जाता है ? शान्तिनिकेतनका सारा रसोीघर ही अिस स्वावलम्बन तत्त्वपर क्यों नहीं चलाया जाता ?' बस, दक्षिण अफ्रीकाके विजयी वीर तो ठहरे। वहाँके अध्यापकोंको और व्यवस्थापकोंको बुलवाया और उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा । वे बड़े संकोचमें पडे । अितने बड़े मेहमानको क्या जवाब दिया जाय ! गांधीजीकी यह जल्दबाजी मुझे अनुचित-सी लगी। मैंने कहा- 'मेरा छोटासा प्रयोग चल रहा है । अगर झुन्हे पसन्द आयेगा, तो धीरे धीरे असे क्लब और भी बन जायेंगे।' मैंने यह भी कहा कि 'दो सौ आदमियोंका आम रसोभी-घर नये ढंगसे चले न चले। अिससे बेहतर यह होगा कि यहाँ पर पच्चीस पच्चीस या तीस तीस आदमियोंके छोटे छोटे क्लब बन जायें ।' कर्मवीर मेरा प्रस्ताव थोड़े ही कबूल करनेवाले थे! कहने लगे- 'अगर आठ क्लब बनाओगे तो तुम्हे कमसे कम सोलह expert (विशेषज्ञ) चाहिये। अितने है तुम्हारे पास ? बड़ी बड़ी फौजें जैसे काम करती हैं, वैसे ही हमें करना होगा और साथ मिलकर काम करने और साथ खानेकी आदत डालनी होगी। अगर छोटे छोटे क्लब ही बनाने हैं, तो कुछ महीनोंके बाद बना सकते हो। आज तो आम रसोओ ही चलानी होगी।'
SR No.010402
Book TitleMahatma Pad Vachi Jain Bramhano ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaktavarlal Mahatma
PublisherVaktavarlal Mahatma
Publication Year1945
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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