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________________ सवार होकर महासागर के-से गंभीर गर्जन से युक्त स्वर में युद्ध-गीत गाते हैं। यह युद्धगीत कहने को एक गीत था लेकिन इसमें रसानुभूति के माध्यम से मन को छू लेने वाली गहराई भी थी, साथ ही साथ उसी गहराई में जन-मानस को राष्ट्रीयता रूपी आवेग में सराबोर करने की क्षमता भी। गुरू-गोविन्द सिंह की प्रतिज्ञा किसी भी व्यक्ति के अन्दर स्फूर्ति पैदा करने के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती है। वे गुरू गोविन्द सिंह का वीरों के मन को मोहने वाला दुर्जय संग्राम का राग गाते हैं, वह राग ऐसा मानों उस राग से भारतीय जन-मानस में उत्साह-रूपी आवेग का संचार हो गया हो। किसी ने ठीक ही कहा था कि गुरू-गोविन्द बारहो महीने खूनों की होलियाँ खेलते थे ऐसे सिंह वीरों का निवास-भूमि में कायर डरपोक लोगों का कोई स्थान नहीं है। पुरूषत्व का समावेश: निराला का स्पष्ट मत था कि वीर भोग्या बसुंधरा। इसका यह अभिप्राय कदापि नही था कि पौरूषवान व्यक्ति को ही जीने का अधिकार है बल्कि उनका इशारा अंग्रेजी शासन की तरह था, वे देशवासियों का आह्वान अपनी कविता के माध्यम से करना चाहते हैं। वे संदेश देते थे कि मेरे देशवासियों अगर आपको इन अंग्रेज फिरंगियों को देश से निकालना है तो पहले अपने पाँवों पर चलने की आदत डालो यानी आत्मनिर्भर बनो। "सिहों की गोद से छीनता रे शिशु कौन! मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण? रे अंजान एक मेषमाता ही रहती है निर्निमेष। 66
SR No.010401
Book TitleLonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPraveshkumar Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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