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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न ही नहीं रहता। इसके अतिरिक्त दूसरी आपत्ति यह है कि आत्मा स्वयमेव अगर अपने विभावोंका कारण है तो आत्मा नित्य होनेके कारण हमेशा विभावोंको उत्पन्न करेगा और इस प्रकार उसे मुक्त होनेका कभी अवसर ही नहीं आयेगा।" अतएव रागादि विभावोंका कारण द्रव्य कर्म है, जो परद्रव्य है। जिस अविवेकी आत्माको विवेकज्ञान नहीं है और इस कारण जो परद्रव्यमें और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंमें अहं-ममत्व-बुद्धि रखता है, वह फिर नवीन कर्म बाँधता है । परन्तु जिस विवेकी पुरुपको विवेकज्ञान हो चुका है वह परद्रव्यको अपनेसे भिन्न मानता है और उसमें राग नहीं करता । अतएव उसके निमित्तसे होनेवाले दोषोंका भी अपनेको कर्त्ता नहीं मानता । ( स० २८६-७ ) जवतक आत्मा 'द्रव्य' और 'भाव'-दोनों प्रकारसे परद्रव्यका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं करता और अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थिर नहीं होता, तबतक वह नवीन कर्म बाँधता ही रहता है। ( स० २८३-५) ६. मोक्ष कोई पुरुप लम्बे समयसे कैदमें पड़ा हो और अपने बन्धनकी तीव्रता या. मन्दताको तथा बन्धनके समयको भलीभाँति जानता हो, परन्तु जबतक वह अपने बन्धनके वश होकर उसका छेद नहीं करता, तबतक लम्बा काल बीत जानेपर भी वह छूट नहीं सकता। इसी प्रकार कोई मनुष्य अपने कर्मबन्धनका प्रदेश, स्थिति, प्रकृति तथा अनुभाग ( रस ) जानता हो, तो भी इतने मात्रसे वह कर्मबन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। हाँ, वही मनुष्य यदि रागादिको हटाकर शुद्ध हो जाय तो मुक्ति प्राप्त कर सकता है। बन्धका विचार करने मात्रसे बन्धसे छुटकारा नहीं मिलता। छुटकारा पानेके लिए बन्धका और आत्माका स्वभाव जानकर बन्धसे विरक्त होना चाहिए ( स० २८८-९३)
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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