SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यविचार ७३ शान्त हो गये हैं, जो सदाचारमें प्रवृत्त है तथा तपस्या में भी जो अधिक है, ऐसा मुनि भी अगर लौकिक जनोंके संसर्गको नहीं तजता तो वह संयमी नहीं हो सकता । प्रव्रज्या धारण करके भी जो निर्ग्रन्थ मुनि लौकिक कार्यों में रचा-पचा रहता है, वह संयम और तपसे युक्त भले ही हो, तब भी उसे लौकिक ही कहना चाहिए । अतएव, जिस श्रमणको दुःखसे मुक्त होनेकी अभिलाषा हो उसे समान गुणवालेकी या अधिक गुणवालेकी संगतिमें रहना चाहिए | जैनमार्गमें रहकर भी जो पदार्थोंका स्वरूप विपरीत समझकर 'यही तत्त्व है' ऐसा निश्चय कर बैठता है, वह भविष्यमें भीषण दुःख भोगता हुआ, लम्बे समय तक परिभ्रमण करता है । मिथ्या आचरणसे रहित, पदार्थोके यथार्थ स्वरूपका निश्चय करनेवाला, और प्रशान्तचित्त मुनि परिपूर्ण श्रमणताका पात्र है और वह इस अफल संसारमें लम्बे समय तक जीवित नहीं रहता शीघ्र मुक्तिलाभ करता है । (प्र० ३, ६१-७३ )
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy