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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न ५२ करता रहता है । ( प्र० १, ८-१२ ) जीवके शुभभाव - जो आत्मा देव, साधु और गुरुकी पूजामें तथा दान, उत्तम शील और उपवास आदिमें अनुराग रखता है, वह शुभ भाववाला गिना जाता है । जिस जीवका राग शुभ है, जिसका भाव अनुकम्पायुक्त है, तथा जिसके चित्तमें कलुषता नहीं है, वह जीव पुण्यशाली है । अर्हन्तों, सिद्धों और साधुओंमें भक्ति, धर्ममें प्रवृत्ति तथा गुरुओंका अनुसरण - यह सब शुभ राग कहलाता है। भूखे प्यासे और दुःखीको देखकर स्वयं दुःखका अनुभव करना और दयापूर्वक उसकी सहायता करना अनुकम्पा है । क्रोध, मान, माया या लोभ चित्तको अभिभूत करके जीवको क्षुब्ध कर डालते हैं, यह कलुषता है । शुभ भाववाला जीव पशु, मनुष्य या देव होकर नियत समय तक इन्द्रियजन्य सुख प्राप्त करता है । ( पं० १३५-८ ) जीवके अशुभभाव - जो मनुष्य विषय कषायोंमें डूबा रहता है, जो कुशास्त्रों, दुष्ट विचारों और गोष्ठीवाला है, जो उग्र और उन्मार्गगामी है, उसका चेतनाव्यापार अशुभ है । ( प्र०२, ६६ ) प्रमादबहुल प्रवृत्ति, कलुषता, विषय- लोलुपता, दूसरोंको परिताप पहुँचाना, दूसरेकी निन्दा करना, यह सब पापकर्मके द्वार हैं। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह - यह चार संज्ञाएँ, कृष्ण, नील और कापोत - यह तीन लेश्याएँ इन्द्रियवशता १. कषायसे अनुरंजित मन, वचन और कायको प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है । लेश्याएँ छह हैं - तीन शुभ और तीन अशुभ । हिंसा भादि उत्कट पापि प्रवृत्ति करनेवाला, श्रजितेन्द्रिय पुरुष कृष्ण लेश्यावाला कहलाता है। ईप, तपका अभाव, विषयलम्पटता, अविद्या और मायावाला, इन्द्रियसुखका अभिलाषी पुरुष नील लेश्यावाला कहलाता है। वक्र भाषण करनेवाला, वक्र आचरण करनेवाला, शठ एवं कपटी मनुष्य कापोत लेश्यावाला कहलाता है । यह तीन अशुभ लेश्याएँ हैं ।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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