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________________ ४६ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न नहीं है अथवा जो हितमें प्रवृत्ति और अहितसे निवृत्ति नहीं कर सकता वह अजीव है । संस्थान ( आकृति ), संघात, वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द तथा अन्य अनेक गुण और पर्याय पुद्गलद्रव्यके समझने चाहिए । जीव तो अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, चेतन, शब्दरहित, इन्द्रियोंसे अगोचर और निराकार है । ( पं० १२१-७ ) ३. श्रात्मा जीवकायके छह भेद - जीवकायके छह भेद हैं : ( १ ) पृथ्वी ( २ ) पानी ( ३ ) अग्नि ( ४ ) वायु ( ५ ) वनस्पति और ( ६ ) त्रसजंगम । त्रसकाय जीवयुक्त हैं, यह बात तो सहज ही समझी जा सकती है; परन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय भी जीवयुक्त हैं । उनके अवान्तरभेद अनेक हैं । यह काय अपने भीतर रहनेवाले उन जीवोंको सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय द्वारा मोहबहुल स्पर्शरूपसे भोग प्रदान करते हैं । ( अर्थात् पृथ्वीकाय आदिके जीवोंकी चेतना सिर्फ कर्मफलका अनुभव' करती है ।) इनमें अग्नि और वायुको छोड़कर तीन स्थावर हैं। अग्नि और वायु भी वास्तव में स्थावर ही हैं, किन्तु त्रसके समान गति उनमें देखी जाती है । यह पांचों जीव एकेन्द्रिय हैं और मन रहित हैं । जैसे अंण्डेमें रहा हुआ जीव अथवा मूर्च्छित मनुष्य बाहरसे जीवित नहीं मालूम होता, फिर भी वह जीवित होता है, यही बात एकेन्द्रिय जीवोंके सम्बन्धमें समझनी चाहिए । ( त्रस जीवोंमें ) शम्बूक, शंख, सीप, कृमि आदि जीव स्पर्श और रस इस प्रकार दो इन्द्रियोंवाले हैं। जूँ, खटमल, चिउँटी आदिमें घ्राण इन्द्रिय भी होती है । अतएव वे तीन इन्द्रियोंवाले हैं। डाँस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, पतंग आदि जीव चार इन्द्रियवाले हैं। इनमें पूर्वोक्त तीनके अतिरिक्त चौथी चक्षु इन्द्रिय भी पायी जाती है। जलचर, स्थलचर और खेचर देव, मनुष्य, नारकी और तियंच ( पशु आदि) में श्रोत्र ( कान ) इन्द्रिय भी होती है । यह सब पंचेन्द्रिय जीव
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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