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________________ द्रव्यविचार है। अगर आकाश गमन-क्रियाका भी कारण हो तो लोकके बाहर अलोकमें भी मुक्त जीवका गमन होना चाहिए, क्योंकि आकाश वहाँ भी मौजूद है। परन्तु सिद्ध जीव लोकके बाहर गमन नहीं करता। इसका कारण यह है कि गति और स्थितिमें सहायक होनेवाले धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका लोकके बाहर अभाव है। इसके अतिरिक्त, पदार्थोंकी गति और स्थिति मर्यादित लोक-क्षेत्रमें होती है, इसी कारण जगत् सुव्यवस्थित मालूम होता है अगर अनन्त पुद्गल और अनन्त जीवव्यक्ति, असीम परिमाणवाले विस्तृत आकाश क्षेत्रमें, बिना किसी रुकावटके संचार करें तो इतने पृथक् हो जायेंगे कि उनका फिरसे मिलना और नियत सृष्टिके रूपमें दिखलाई पड़ना असम्भव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही हो जायेगा।' इस प्रकार आकाशको गति और स्थितिका कारण माननेसे लोक-मर्यादाका भंग प्राप्त होता है और अलोक नामको वस्तु ही नहीं रह जाती। अतएव आकाशसे भिन्न धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यको ही गति और स्थितिमें निमित्त मानना उचित है। धर्म, अधर्म और लोकाकाश समान क्षेत्र में स्थित हैं। उनका परिमाण भी समान है, फिर भी वास्तवमें वे भिन्न-भिन्न हैं। २. धर्म-धर्मद्रव्य रसरहित, वर्णरहित, गन्धरहित और स्पर्शरहित है। यह सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त है । अखण्ड है, स्वभावसे ही विस्तृत है और ( पारमार्थिक दृष्टिसे अखण्ड एक द्रव्य होनेपर भी व्यावहारिक दृष्टिसे ) असंख्य प्रदेशयुक्त है । वह ( क्रियाशील नहीं है, किन्तु भावशील अर्थात् परिणमनशील है ) अगुरुलघु ( अमूर्त ) अनन्त पर्यायोंके रूपमें सतत परिणमन करता रहता है । वह किसीका कार्य नहीं है । गतिक्रियायुक्त जीव और पुद्गल द्रव्योंकी गतिक्रियामें निमित्तकारण है। जैसे पानी मछलीको गमनक्रियामें अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलकी गतिमें निमित्त होता है; धर्मद्रव्य स्वयं १. इनवर्टेड कॉमाके अन्दरका पाठ मूल में नहीं है।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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