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________________ २७ उपोद्घात शुद्ध और निरंजन जीव मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीन भावोंमें पारणत होता आया है। इन परिणामोंके निमित्तसे फिर पुद्गल द्रव्यकर्मके रूपमें परिणत होकर जीवके साथ बँध जाता है; और इन कर्मोंके निमित्तसे जीव फिर विविध विभाव रूपमें परिणत होता है।' (स० ८९ आदि)। ___ 'जहाँतक जीवका ज्ञान गुणहीन अर्थात् सकषाय होता है, वहाँतक वह नाना और नाना प्रकारके परिणाम पाता रहता है; परन्तु जब वह उसका त्याग कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तब विभाव परिणाम बन्द हो जाते हैं और कर्मका बन्ध नहीं होता।' ( स० १७२) 'ज्ञानियोंने कर्मके परिणाम विविध कहे हैं, परन्तु कर्मोके निमित्तसे होनेवाले भाव मेरा स्वरूप नहीं है; मैं तो एक चेतन स्वरूप हूँ। राग जड़ कर्म है, उसके कारण रागभाव उत्पन्न होता है, मगर वह भाव मेरा नहीं है। मैं तो एक चेतनस्वरूप हूँ। ज्ञानी इस प्रकार वस्तुस्वरूपको जानता है, अतएव विविध भावोंको कर्मका परिणाम समझकर उन्हें तज देता है।' ( स० १९७)। इस प्रकार अन्तमें तो वेदान्तका 'अज्ञान' या 'अविद्या' और सांख्यका 'अविवेक' ही आ उपस्थित होता है। अलबत्ता, इस अज्ञान दशामें भी सांख्य या वेदान्त इन विभावोंको 'पुरुष' या 'आत्मा'का नहीं कहेंगे, चित्त या अन्तःकरणका ही कहेंगे; जब कि जैनदर्शन इन विभावोंको, अज्ञान अवस्थामें 'जीव' के कहेगा। हालाँ कि इस विषयमें कुन्दकुन्दाचार्य जरा आगे बढ़ गये हैं। वे तो साफ-साफ कहते हैं कि यह सब विभाव 'मेरा स्वरूप नहीं है', राग जड़ कर्म है और इसीके परिणामस्वरूप यह रागभाव उत्पन्न होता है। परन्तु वह कोई मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो एक चेतन स्वरूप हूँ। आत्मा वास्तवमें हो कर्म और कर्मफलका कर्ता हो तो आत्माको कभी मोक्ष ही नहीं हो सकता। ( स० ३२१ आदि )। उनके ग्रन्थोंमें साधकको बार-बार जो सलाह दी गयी है और एक मुख्य मार्ग बतलाया गया है, वह आत्माके शुद्ध स्वरूपका चिन्तन और
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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