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________________ उपोद्घास और वे अधिक स्पष्ट होकर कहते हैं - 'अध्यवसान आदि भाव जड़ द्रव्यके परिणमनसे निष्पन्न होते हैं ऐसा केवलज्ञानियोंने कहा है। उन्हें जीव किस प्रकार कहा जा सकता है ? आठों प्रकारका कर्म, जिसके परिणाम स्वरूप प्राप्त होनेवाला फल 'दुःख' के नायसे प्रसिद्ध है, जड़ द्रव्यरूपपुद्गलमय है। अध्यवसान आदि भाव जहाँ जीवके कहे गये हैं, वहाँ व्यवहारदृष्टिका कथन है। जीव तो अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अव्यक्त, अशब्द, अशरीर, सब प्रकारके लिंग आकार या संहनन ( शरीरके गठन ) से हीन तथा चेतना गुणवाला है। राग-द्वेष या मोह उसके नहीं हैं । प्रमाद आदि कर्मबन्धनके कारण भी उसके नहीं हैं। रागादि विकल्प - शारीरिक, मानसिक या वाचिक प्रवृत्तियाँ कषायकी तीव्रता, अतीव्रता या क्रमहानि, यह सब भो जीवके नहीं हैं। क्योंकि यह सब जड़-पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं। यह सब भाव व्यवहारदृष्टिसे जीवके कहलाते हैं - यह सब भाव जीवसे जुदा हैं। संसारप्रमुक्त जीवोंको इनमें से कुछ भी नहीं होता। संसारी अवस्थामें भी यह वर्णादि व्यवहारदृष्टिसे ही जीवके हैं; वास्तवमें नहीं। संसारी अवस्थामें भी यह भाव वास्तवमें जीवके हों तो संसारस्थ जीव और जड़-पुद्गल द्रव्यके बीच अन्तर ही न रहे।' ( स० ४८-६८)। __ इस प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य सीधी सांख्यदर्शनकी या वेदान्तदर्शनकी स्थिति स्वीकार करते हैं। सांख्यदर्शन इन सब विभावोंको प्रकृतिका गुण स्वीकार करता है और वेदान्त उन्हें अन्तःकरण या चित्तका धर्म मानता है । परन्तु वस्तुतः आत्माके यह सब विभाव नहीं हैं, इस मान्यतामें कुन्दकुन्दाचार्य उन्हींके साथ जा खड़े होते हैं। तो फिर प्रश्न खड़ा होता है कि जैनदर्शनमें जीवको कर्ता स्वीकार किया गया है सो उसका क्या हो ? कुन्दकुन्दाचार्य इस प्रश्नका जो स्पष्ट उत्तर देते हैं वह ठीक सांख्यवादी या वेदान्तवादीको ही सुहाता है। वे कहते हैं - 'जबतक अज्ञानी जीव आत्मा और क्रोधादिके बीचका अन्तर नहीं जानता तबतक वह क्रोधादिको अपना मानकर उनमें प्रवृत्त होता है; और इस कारण कर्मोंका संचय होता
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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