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________________ उपोद्घात महावीरके बाद ५८९-६१२ वर्ष अर्थात् ई० स० ६२-८५ में हो गये है। परन्तु उन्हें बारह अंगों और चौदह पूर्वोका ज्ञाता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ऐसी परम्परा है कि चार पूर्वग्रन्थ तो प्रथम भद्रबाहुके बाद ही लुप्त हो गये थे और वही अन्तिम नौदह पूर्वोके ज्ञाता थे। अब अगर कुन्दकुन्दाचार्य प्रथम भद्रबाहुके शिष्य हों तो कहना चाहिए कि वे ई० स० पूर्व तीसरी शताब्दीमें हुए हैं। मगर कई कारणोंसे यह निर्णय स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैन दन्तकथा या परम्परामें कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता, जिससे कुन्दकुन्दाचार्यको भद्रबाहुका समकालीन गिना जा सके। इसके विपरीत, जो परम्पराएँ उपलब्ध है, वे उक्त निर्णयका विरोध करती हैं। ऐसी स्थितिमें कुन्दकुन्दाचार्यको भद्रबाहुका परम्पराशिष्य गिनना चाहिए। साहित्यमें बहुत बार ऐसा ही होता है। उदाहरणार्थ - 'उपमिति-भवप्रपंचकथा' के लेखक सिद्धर्षि ( ई० स० ९०६ ) हरिभद्रको अपना 'धर्मप्रबोधकर गुरु' कहते हैं। परन्तु अन्य विश्वसनीय प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है कि वे समकालीन नहीं थे; क्योंकि हरिभद्र तो आठवीं शताब्दीके अधबीचके बादके समयमें हो चुके हैं। कुन्दकुन्दाचार्य अपने आपको भद्रबाहुके शिष्यके रूपमें परिचित कराते हैं, इसका एक कारण यह हो सकता है कि भद्रबाहु ही दक्षिण जानेवाले संघके अगुवा और नेता थे। दक्षिणका संघ, उनकी मृत्युके पश्चात् यदि माने कि हमें समस्त धार्मिक ज्ञान उन्हींके द्वारा प्राप्त हुआ है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। अतएव यह सम्भव है कि कुन्दकुन्दाचार्य भी यह मानते हों कि हमें समस्त ज्ञान भद्रबाहुके द्वारा ही प्राप्त हुआ है और इसी कारण वे अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट करते हों। कालनिर्णय पट्टावलियोंके आधारपर जैनोंमें परम्परागत मान्यता यह है कि कुन्दकुन्दाचार्य, ई० स. पूर्व १ली सदीमें तैतीस वर्षकी उम्रमें आचार्य पदपर
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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