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________________ १०६ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न दंसणणाणचरित्तसु तीसु जुगवं समुढिदो जो दु । एयग्गगदोत्ति मदो सामण्णं तस्स परिपुण्णं ॥ श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रमें जो एक साथ प्रयत्नशील है और जो एकाग्र है, उसका श्रमणक्त परिपूर्ण कहलाता है । (३, ४२) अत्थेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि व दोसमुत्रयादि । समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविधाणि ॥ पदार्थों में जिसे राग, द्वेष या मोह नहीं है, वह श्रमण, निश्चय ही विविध कर्मोका क्षय करता है। (३, ४४) इहलोगनिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्मि । जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो॥ इस लोक या परलोकके विषयमें जिसे कुछ भी आकांक्षा नहीं है, जिसका आहार-विहार प्रमाणपूर्वक है और जो क्रोधादि विकारोंसे रहित है, वह सच्चा श्रमण है। जस्स अणेसणमप्या तंपि तो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं मिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा । आत्मामें परद्रव्यको किंचित् भी अभिलाषा न होना ही वास्तविक तप (उपवास) है। सच्चा श्रमण इसी तपकी आकांक्षा करता है। भिक्षाद्वारा प्राप्त निर्दोष आहार करते हुए भी श्रमण अनाहारी ही है। (३,२७) केवलदेहो समणो देहेण ममैत्ति रहिदपरिकम्मो । भाउत्तो तं तवसा अणिगृहं अप्पणो सत्तिं ॥ सच्चे श्रमणको शरीरके सिवा और कोई परिग्रह नहीं होता । शरीरमें भी ममता न होनेके कारण अयोग्य आहार आदिसे वह उसका पालन नहीं करता और शक्तिको जरा भी छिपाये बिना उसे तपमें लगाता है। (३, २८)
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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