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________________ सुभाषित मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव । तत्थेव विहर णिचं मा विहर अण्णदव्वेसु ॥ अपने आत्माको मोक्षमार्गमें स्थापित करके उसीका ध्यान करो; नित्य उसीमें विहार करो; अन्य द्रव्योंमें विहार करना छोड़ दो। ( ४१२ ) प्रवचनसार विषयसुख जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्मवाणि । जणयति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥ शुभ परिणामसे उत्पन्न होनेवाले पुण्य अगर है भी तो उनसे क्या हुआ ? वे पुण्य देव पर्यन्त सभी जीवोंको विषय सम्बन्धी तृष्णा ही उत्पन्न करते हैं । ( जहाँ तृष्णा है वहाँ सुख कहाँ ? ) ( १,७४ ) ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहि विसयसोक्वाणि । इच्छंति अगुहवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥ जिनकी तृष्णा जाग उठी है, ऐसे वह जीव तृष्णासे दुखी होकर फिर विषयसुखकी इच्छा करते हैं और तृष्णाके दुःखसे सन्तप्त होकर मृत्यु पर्यन्त सुखोंकी इच्छा करते और उन्हें भोगते रहते हैं । ( १,७५) सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिपहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तधा । इन्द्रियोंसे प्राप्त होनेवाला सुख, दुःख रूप ही है, क्योंकि वह पराधीन है, बाधाओंसे परिपूर्ण है, नाशशील है, बन्धका कारण है और अतृप्तिकर है । ( १,७६ ) पुगतेण वि देहो सुहंण देहिस्स कुणइ सग्गे वा। विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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