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________________ [७] पापमय एवं महारंभयुक्त होता तो जैनागमों में कहीं न कहीं अवश्य उसके लिये निषेधात्मक विवरण प्राप्त होता। कई एक शास्त्र के रहस्य को नहीं जानने वाले लोग एक बड़ी भारी शंका यह करने हैं कि जैनधर्म तो सूक्ष्म अहिंसा का उपदेशक एवं प्रतिपादक है, उसके विपरीत यदि हम कृषि करें तो उसमें कई एक स्थावर एवं त्रस (बेइंदिय, तेइंदिय, तथा चतुरिन्दिय ) जीवों की हिंसा होगी, साथ ही वृषभादि पंचेद्रिय प्राणियों को अधिक भार वहन करने से दुःख सहन करना होगा अतः ऐसा व्ययसाय जिसमें हिंसा की आदि से अन्त तक परम्परा हो, जैन-धर्म की दृष्टि से वह व्यवसाय तो त्याज्य ही है । परन्तु उपरोक्त शंका के मूल में ही विचारशून्यता है। यदि इस प्रकार से प्रत्येक व्यवसाय में सूक्ष्म हिंसा का विचार कर समाधि ले ली जाय तो प्राण-धारण एवं जीवन निवाह प्राणी मात्र के लिए दूभर हो जाय । उपरोक्त शंका करने वाले भाई कलम-शस्त्र से पंचेद्रिय प्राणियों की हिंसा करते वक्त किसी प्रकार का विचार नहीं करते, परन्तु कपि जैसे पवित्र उद्योग में हिंला सिद्ध करके लोक में हास्या. स्पद घनते हैं। दूसरी बात यह है कि यदि किसी अल्प पाप के परिणामस्वरूप महान् पुण्योपार्जन किया जा सकता हो विश्वर्तीमानव-मात्र का पोपण किया जा सकता हो, आश्चर्य है कि ऐसे पुनीत व्यावसायिक यज्ञ को निन्दित माना जाए ।
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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