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________________ [७५ ] ऐसे अपवाद मार्ग कौनसे हैं ? ___ स्थानांगसूत्र के ३ रे ठाणे प्रथम उद्देशे के १३८३ सूत्र में तथा जीवाभिगमसूत्र में मनुप्य के तीन भेद किये गये हैं ला कर्मभूमिज,रा अकर्मभूमिज तथा ३रा प्रान्तरहीपिक। कर्मभूमि की व्याख्या करते हुए शास्त्रकार ने यह बतलाया है कि कृपि, वाणिज्य, तप संयमादि अनुष्ठान प्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं। अर्थात् असि, मसि एवं कृषि का जहाँ व्यापार होता हो वही कर्मभूमि है। उपरोक्त तीन प्रकार के व्यापाशं में से एक भी व्यापार का जहाँ असद्भाव हो वह स्थान निष्कर्मण्य एवं निरपयोगी है। उक्त तीन कार्यों को उपयोगपूर्वक करने वाला ही अपने चरम लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। शेष दो अर्थात् अकर्मभूमिज तथा श्रान्तरद्वीपिक मनुप्य निर्व्यवसायी, निस्दयोगी एवं निकमराय रहते हैं तथा उनकी जीवन-डोर कल्पवृक्षो के अाश्रित रहती है। अतः वर्तमान काल की दृष्टि से तथा मुमुक्षुमात्र के हितसाधन की दृष्टि से वे स्थल महत्त्व पूर्ण एवं उपादेय नहीं कहे जा सकते हैं । महत्व पूर्ण एवं उपादेय स्थल वही कहा जा सकता है जहाँ मानवदेह के धारण करने की सार्थकता सिद्ध हो सके। यदि कोई यह शंका करे कि अकर्मभूमि में कुछ पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता, किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं की जाती, और ऐसा होते हुए भी वहाँ का जीवन सुख भद ही है फिर इस मायाजाल और मोह-प्रपंचमय
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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