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________________ [ == ] है । इसका आंशिक समाधान ऊपर उद्घृत वाक्य से हो जाता है कि शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति करनी चाहिए । लेकिन शुभ क्या है ? और अशुभ क्या है ? यह प्रश्न फिर भी बना रहता है। शुभ और अशुभ की व्याख्या कुछ-कुछ देश - काल की परिस्थिति पर निर्भर करती है, लेकिन उनकी सर्वदेश - कालव्यापी व्याख्या यही हो सकती है कि जिस कार्य से श्रात्मा का और जगत् का कल्याण हो वह शुभ है और जिससे व्यक्ति और समष्टि का कल्याण हो वह अशुभ है । इमी दृष्टि से हमें जीवननिर्वाह के लिए कोई भी शुभ कार्य पसंद करना चाहिए। पहले जो विवेचन किया गया है उनसे यह स्पष्ट है कि कृषिकर्स जीवन के लिए अत्युपयोगी है-व्यक्ति और समाज का जीवन उसी पर अवलंबित है। उससे किसी को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती । श्रतएव जीवननिर्वाह का जहाँ तक प्रश्न है. कृषि विधेय कर्म है । सट्टे आदि की निवृत्ति से कृपि श्रादि शुभ कार्यो मे प्रवृत्ति ही फलित होती है । उत्तराध्यन सूत्र में बतलाया गया है कि धर्मात्मा पुरुष स्वर्ग में उत्पन्न होने के पश्चात् जव मनुष्ययोनि धारण करता है, तब उसे दस श्रेष्ठ वस्तुओंों की प्राप्ति होती है । यथा खेत्तं वत्थु हिरणं च, पसवो दास-पोरुसं । चारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥ -laun -उत्तरा ३ रा श्रध्याय । · यहाँ क्षेत्र (खेत ) की प्राप्ति को प्रथम स्थान दिया गया
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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