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________________ [ १५ ] सभारंभ की दृष्टि से कृषि का श्रावक के लिए निषेध करना उचित नहीं है। कृषि-कार्य में प्रारंभ नहीं है, यह कहना यहाँ अभीष्ट नहीं है। कृषि में ही क्यों, प्रारंभ तो छोटे से छोटे कार्य में भी होता है। यहाँ तक कि घर आये हुए को आसन देने में भी आरंभ होता ही है। कहने का आशय यह है कि कृषि का आरंभ त्यागना श्रावकधर्म की मर्यादा में नहीं है। श्रावक की योग्यतानुसार उसके प्राचार की अनेक कोटियाँ हैं। उसका आचार अनेक प्रकार का होता है। कोई श्रावक साधारण त्यागी होता है, कोई प्रतिमाधारी होता है। जैनशास्त्रों में बतलाया गया है कि प्रत्येक प्रतिमाधारी श्रावक भी कृपि के आरंभ का त्यागी नहीं होता। प्रतिमाओं का सेवन क्रमपूर्वक ही होता है और प्रारंभत्यागप्रतिमा (पडिमा) में श्रावक खेती का त्याग करता है। दिगम्बर संप्रदाय के सुप्रसिद्ध प्राचार्य श्रीसमन्तभद्र कहते हैं सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्याऽसावारम्भविनिवृत्तः ।। -~~ रत्नकरण्डक श्रावकाचार, अ, ३ । ' अर्थात् सेवा, कृषि और व्यापार आदि प्रारंभ से, जो हिंसा के हेतु हैं, जो श्रावक निवृत्त होता है वह प्रारंभत्याग प्रतिमा का पालक कहलाता है।
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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