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Jain Terms Preserved: 1. Charitramohakshapaka-krishtikshapaka-kriya-nirupana 2. Pucchhasutta 3. Kittikaragappa 4. Kittivedag 5. Kittikamma-sigavadiritto jiv 6. Mula-gaha 7. Prayoga-sa 8. Niyama-sa 9. Gananadi-yanta
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________________ गा० २२४] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण १४५२. एदं पुच्छासुत्तं । १४५३. एदिस्से गाहाए किट्टीकारगप्पहुडि णत्थि अत्थो । १४५४. हंदि किट्टीकारगो किट्टीवेदगो वा ठिदि-अणुभागे ण उक्कड्डदि त्ति । १४५५. जो किट्टीकम्मंसिगवदिरित्तो जीवो तस्स एसो अत्थो पुव्वपरूविदो । १४५६. एत्तो पंचमी भासगाहा । (१७०) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस-अणुभागे । बहुगत्ते थोवत्ते जहेव पुव्वं तहेवेहि ॥२२३॥ १४५७. विहासा । १४५८. तं जहा । १४५९ संकामगे च चत्तारि मूलगाहाओ, तत्थ जा चउत्थी मूलगाहा तिस्से तिण्णि भासगाहाओ। तासिं जो अत्थो सो इमिस्से विं पंचमीए गाहाए अत्थो कायरो । - १४६०. एत्तो छट्ठी भासगाहा । (१७१) जो कम्मंसो पविसदि पओगसा तेण णियषसा अहिओ। पविसदि ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥२२४॥ चूर्णिसू०-यह सम्पूर्णगाथा पृच्छासूत्ररूप है। इस गाथाका कृष्टिकारकसे लेकर आगे अर्थका कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कृष्टिकारक या कृष्टिवेदक क्षपक कृष्टिगत स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण नहीं करता है। ( केवल अपकर्षण कर उदीरणा करता हुआ ही चला जाता है ।) किन्तु जो कृष्टि-कर्माशिक-व्यतिरिक्त जीव है, अर्थात् कृष्टिकरणरूप क्रियासे रहित क्षपक है, उसके विपयमें यह अर्थ पूर्वमे ही अपवर्तना-प्रकरणमे प्ररूपण किया जा चुका है ॥१४५२-१४५५॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१४५६॥ कृष्टिकारकके प्रदेश और अनुभाग-विषयक बन्ध, संक्रमण और उदय ( किस प्रकार प्रवृत्त होते हैं ? इस विषयका ) बहुत्व या स्तोकत्वकी अपेक्षा जिस प्रकार पहले निर्णय किया गया है, उसी प्रकार यहाँपर भी निर्णय करना चाहिए ॥२२३॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है-संक्रामकके विषयमें पहले चार मूलगाथाएँ कही गई हैं। उनमें जो चौथी मूलगाथा है, उसकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं। उनका जो अर्थ वहाँ पर किया गया है, वही अर्थ इस पॉचवीं भाष्यगाथाका भी करना चाहिए ॥१४५७-१४५९॥ चूर्णिसू०-अव इससे आगे छठी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।। १४६०॥ जो कर्माश प्रयोगके द्वारा उदयावलीमें प्रविष्ट किया जाता है, उसकी अपेक्षा स्थितिक्षयसे जो कर्माश उदयावली में प्रविष्ट होता है, वह नियमसे गणनातीत गुणसे अर्थात् असंख्यातगुणितरूपसे अधिक होता है ॥२२४॥ १ हदि वियाण निश्चिनु । जयघ०
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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