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## [Verse 184] Description of the **Kṛṣṭivedaka** (Cultivator) and **Kṣapaka** (Destroyer) **859.** Here, for each **Gati** (Motion) and each **Kāya** (Body), the **Jghana** (Inferior) and **Utkrṣṭa** (Superior) **Pradeśāgra** (Extent of the Field of Karma) should be understood in accordance with the **Pramaṇānugama** (Measure of the Field of Karma) and **Alpabahutva** (Quantity of the Field of Karma). **860.** Now, the explanation of the second **Bhāṣyagāthā** (Commentary Verse) is presented. (131) The **Kṛṣṭivedaka** **Kṣapaka** is bound by countless **Bhavagrahana** (Birth-Graspings) of **Ekendriya** (One-Sensed) beings, and by the **Nīyama** (Law) of **Karma** (Action). The **Kṣapaka** also has **Karma** accumulated through one, two, three, and so on, a countable number of **Bhavas** (Existences). ||184||
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________________ गा० १८४] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदक-निरूपण ८५९. एत्तो एकेकाए गदीए काएहिं च समज्जिदल्लग्गस्स जहण्णुक्कस्सपदेस-' ग्गस्स पमाणाणुगमो च अप्पाबहुअंच कायव्वं । ____८६०. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१३१) एइ दियभवग्गहणेहिं असंखेज्जेहिं णियमसा बद्ध। एगादेगुचरियं संखेज्जेहि य तसभवेहिं ॥१८४॥ . चूर्णिसू०-अब इससे आगे एक-एक गति और एक-एक कायके साथ समुपार्जित पूर्वबद्ध कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्वानुगम करना चाहिए ॥८५९॥ विशेषार्थ-उक्त चूर्णिसूत्रसे सूचित प्रमाणानुगमका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जिन गति और कायोंमे समुपार्जित कर्म भजनीय है, उनमे समुपार्जित प्रदेशपिंडका जघन्य प्रमाण एक परमाणु है, और उत्कृष्ट प्रमाण अनन्त कर्म-परमाणु हैं। किन्तु जिन गति और कायोमे संचित द्रव्य नियमसे पाया जाता है, उनमे जघन्य और उत्कृष्ट दोनोकी ही अपेक्षा समुपार्जित कर्मप्रदेशोका प्रमाण अनन्त होता है । अब अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करते है-भजनीय पूर्वबद्ध संचित कर्मद्रव्यके जघन्य प्रदेशाग्र अल्प है । उत्कृष्ट प्रदेशाग्र अनन्तगुणित है। अभजनीय कर्मोंका जघन्य प्रदेशपिड अल्प है । उत्कृष्ट प्रदेशपिड असंख्यातगुणा है। किस कृष्टिनेदकके जघन्य और किसके उत्कृष्ट संचित द्रव्य पाया जाता है, इसका उत्तर यह हैजो जीव एकेन्द्रियोमें क्षपित-कोशिक होकर कर्मस्थिति कालतक रहा । पुनः वहाँसे निकलकर और शेष गतियोमे सागरोपम शतपृथक्त्व तक परिभ्रमण कर अन्तिम भवमे कर्म-क्षपणके लिए उद्यत होता हुआ श्रेणी चढ़ा, ऐसे कृष्टिवेदक क्षपकके वे तिर्यग्गति-संचित जघन्य कर्मद्रव्य पाया जाता है। किन्तु जो तिर्यंचोंमें गुणित-कांशिक होकर कर्मस्थिति कालतक रहा और वहॉसे निकलकर अन्य गतियोमे परिभ्रमण करके क्षपकश्रेणीपर चढ़ा, उसके तिर्यग्गतिसंचित उत्कृष्ट कर्मद्रव्य पाया जाता है। मनुष्यगति-समुपार्जित जघन्य कर्म-संचय उस जीवके पाया जाता है, जो कि अन्य गतिसे मनुष्योंमे आकर वर्ष-पृथक्त्वके पश्चात् अतिशीव्र क्षपकणीपर चढ़ता है। किन्तु जो अन्य गतिसे आकर मनुष्यगतिमे पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम-प्रमित भवस्थितिका प्रतिपालन कर समयाविरोधसे क्षपकणीपर चढ़ता है, उसके मनुष्यगति-समुपार्जित उत्कृष्ट संचित कर्मद्रव्य पाया जाता है। इसी प्रकार स्थावरकायसे आकर त्रसकायिकोंमे वर्षपृथक्त्व रहकर क्षपकणीपर चढ़नेवाले जीवके त्रसकायसंचित जघन्य कर्मद्रव्य पाया जाता है। किन्तु जो गुणितकांशिक होकर सकायस्थितिप्रमित काल तक सोमे परिभ्रमण कर क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके सकाय-समुपार्जित उत्कृष्ट कर्मेद्रव्य पाया जाता है। . चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८६०॥ कृष्टिवेदक क्षपकके असंख्यात एकेन्द्रिय-भवग्रहणोंके द्वारा बद्ध कर्म नियमसे पाया जाता है । तथा एकको आदि लेकर दो, तीन आदि संख्यात भवोंके द्वारा संचित कर्म पाया जाता है ॥१८४॥
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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