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706 Kasaya Pahuda Sutra [14 Charitra Moha-Upashamana-Adhikarana] 292. The Avastita Vedaka (established knower) continues to be so as long as the Nidrā (sleep) and Prachala (restlessness) are present. 293. The Avastita Vedaka (established knower) is with respect to the Antarāya (obstructive) karma. 294. For the remaining Laddhi-karmāṃśas (portions of attained karmas), the Anubhāgodaya (rise of fruition) may be of the nature of Vṛddhi (increase), Hāni (decrease), or Avastita (established). 295. The Avastita Vedaka (established knower) is with respect to the Nāma (name) and Gotra (lineage) karmas, which are Pariṇāma-pratyayas (resultants of transformations).
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________________ ७०६ कसाय पाहुद्ध सुत्त [ १४ चारित्रमोह-उपशामनाधिकार णीयाणमणुभागुदएण सन्च-उपसंतद्धाए अवढिदवेदगो । २९२. णिहा-पयलाणं पि जाव वेदगो, ताव अवविदवेदगो। २९३. अंतराइयस्स अवद्विवेदंगो। २९४. सेसाणं लद्धिकम्मंसाणमणुभागुदयो बड्डी वा हाणी वा अवडाणं वा ।। २९५. णामाणि गोदाणि जाणि परिणामपञ्चयाणि तेसिमपट्टिदवेदगो अणुभादर्शनावरणका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक है । निद्रा और प्रचलाका भी जब तक वेदक है, तब तक अवस्थित वेदक ही है । अन्तराय कर्मका अवस्थित वेदक है । शेष लब्धिकमांशोका अर्थात भयोपशमको प्राप्त होनेवाली चार घानावरणीय और तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियोका अनुभागोदय वृद्धिरूप भी है, हानिरूप भी है और अवस्थितस्वरूप भी है ॥२८६-२९४॥ विशेषार्थ-सर्वोपशमनाके द्वारा समस्त कपायोके सम्पूर्ण रूपसे उपशान्त हो जानेपर उपशान्तकपायवीतरागके उपशमकाल पूरा होने तक परिणामोंकी विशुद्धि एक रूपसे अवस्थित रहती है, फिर भी जो यहाँपर जिन लब्धि-कांशोके अनुभागोदयको वृद्धि, हानि या अवस्थित रूप बतलाया, उसका कारण यह है कि मतिनानावरण अदि चार नानावरणीय प्रकृतियाँ और चक्षुदर्शनावरणादि तीन दर्शनावरणीय प्रकृतियाँ, ये सात क्षायोपगमिक कांश कहलाते हैं, क्योकि ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमविशेपको लब्धि कहते हैं । उक्त सात प्रकृतियोका ही क्षयोपशम होता है, शेपका नहीं, क्योंकि केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण के सर्वघाती होनेसे उनका क्षयोपशम नहीं, किन्तु क्षय ही होता है। उक्त सात लब्धि-कर्मों से एक अवधिज्ञानावरणीय कर्मको दृष्टान्तरूपसे लेकर वृद्धि, हानि और एक रूप अवस्थानका स्पष्टीकरण करते हैं-उपशान्तकपायवीतरागके यदि अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है, तो उसके अनुभागका अवस्थित उदय होता है, क्योकि वहाँ पर उसकी अनवस्थितताका कोई कारण नहीं पाया जाता है। यदि उपशान्तकपायवीतरागके अवधि. ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम है, तो वहॉपर छह प्रकार की वृद्धिरूप, या हानिरूप या अवस्थितरूप अनुभागका उदय पाया जायगा। इसका कारण यह है कि देशावधि और परमावधि ज्ञानवाले जीवोके अवधिज्ञानावरण कर्मका जो क्षयोपशम होता है, उसके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं, अतएव वाह्य और अन्तरंग कारणोकी अपेक्षासे उनके परिणाम वृद्धि, हानि या अवस्थितरूप पाये जाते हैं। अर्थात् अवधिज्ञानावरणके सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत सर्वावधिज्ञानीके अवधिज्ञानावरणका अवस्थित अनुभागोदय पाया जायगा। तथा देशावधि और परमावधि ज्ञानवालोके क्षयोपशमके प्रकर्षाप्रकर्पसे वृद्धि या हानिरूप अनुभागोदय पाया जायगा। जो, बात अवधिज्ञानावरणके विषयमे कही गई है, वही बात शेप लब्धिकर्मों के वृद्धि, हानि या अवस्थित अनुभागोदयके चिपयमे भी आगमाविरोधसे लगा लेना चाहिए ।, . चूर्णिसू०-जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणाम-प्रत्यय हैं, उनका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदक है ॥२९५।।
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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