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English Translation (preserving Jain terms): [Verse 58] Exposition of the Minimum and Maximum of the Pradeshsamkrama-padanikshep 455. The lowest state (avasthana) of the all-encompassing (sarvathovamuktasya) is known. 615. The minimum (hani) is extremely high. 616. The maximum (vriddhi) is extremely high. 617. This is the minimum. 618. The minimum increase, decrease, and state of the sixteen kashayas, purushavedas, bhaya, and jugupsa are equal. 619. The minimum decrease of samyaktva and samyagmithyatva is the lowest. 620. The maximum increase is innumerable times. 621. The minimum decrease of striveda, napumsakavedas, hasa, rati, arati, and shoka is the lowest. 622. The maximum increase is extremely high. The exposition of the padanikshep is complete.
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________________ गा० ५८ ] प्रदेशसंक्रम-पदणिक्खेव अल्पबहुत्व-निरूपण ४५५ लणस्स सव्वत्थोवमुकस्समवट्ठाणं । ६१५. हाणी विसेसाहिया' । ६१६, बड्डी विसेसाहिया | ६१७. एत्तो जहण्णयं । ६१८. मिच्छत्तस्स सोलसकसाय- पुरिसवेद-भय-दुगुंछ जहणिया बड्डी हाणी अवट्ठाणं च तुल्लाणि । ६१९ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ६२०. वड्डी असंखेज्जगुणा । ६५१. इत्थि णत्रु सयवेद-हस्स-रइ- अरइ-सोगाणं सव्वत्थोवा जहणिया हाणी । ६२२. वड्डी विसेसाहियाँ । पदणिक्खेव समत्तो । ε स्थान सबसे कम होता है । इससे इसकी उत्कृष्ट हानि विशेप अधिक होती है । इससे इसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक होती है ॥ ६११-६१६॥ चूर्णिसू० [0- अब इससे आगे जघन्य अल्पवहुत्व कहते हैं - मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान परस्पर तुल्य होते हैं । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि सबसे कम होती है । इससे इन दोनोंकी जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणित होती है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य हानि सबसे कम होती है । जघन्य हानिसे इनकी जघन्य वृद्धि विशेष अधिक होती है ॥ ६१७-६२२॥ इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । १ कि पमाणमेव ददव्वं ? असखेज्जसमयपत्रद्धपमाणमेद । किं कारण, तप्पा ओग्गुक्कस्सअधापवत्तसकमेण वड्ढिदूणावट्ठिदम्मि वढिणि मित्तमूलदव्वेण सहावठाणन्भुवगमादो । तदो दिवडूढ - गुणहाणिमेत्तसमयपत्रद्धाणमधापवत्तभाग हारपडिभागेणासंखेज्जदिभागमेत्त हो सन्वत्थवमेद ति तव्व । जयध २ किं कारण; उनतभवेढी सप्नुफ्फरसगुणसकमदव्य पडिच्छिय काल कादूण देवेसुववण्णस्स समयाहियावलियाए अणूणा हियतक्कालभावे अधापवत्तसकमेण राणिववहारख्भुवगमादो । जयध० ३ कुदो, एदेसिं कम्माणमेगसतकम्मपक्खेवावलवणेण जहण्णवड्ढि हा विठाणाण सामित्त - पडिलभादो । जयध० ४ कि कारण, खविदकर्मसियदुवरिमुव्वेल्लणखडय चरिमफालीए पडिलद्वजहणभावत्तादो | जय ५ कुदो, सम्मत्तस्स चरिमुव्वेल्लणखडयपढमफालीए गुणसकमेण जहण्णभावपडिलंभादो । सम्मामिच्छत्तस्स वि दुचरिमुव्वेल्लणखडयचरिमफालिं सकामिय सम्मत्त पडिवण्णस्स पढमसमये विज्झादसकमेण जहणसामित्तदसणादो | जयध० ६ किं कारणः खविदकम्मसियल्क्खणेणागतूण एइंदिएसु पल्दिोवमस्स असखेज्जदिभागमेत्तकालं गालिय पुणो सष्णिपचिदिएसुप्पनिय पडिवक्खव धगद्ध वोलाविय सगवधपार भादो आवलियचरिमन्मए वट्टमाणस्स गलिदस्रेसजहण्णसतकम्मविसय अधा पवत्तसकमेण पडिलद्व जहण्णभावत्तादो । जय० ७ किं कारणं, पुव्वत्तेणेव कमेणागतूण सण्णिप चिदिएसु अप्पप्पणो पडिवक्खधगद्ध गालिय सगधपार भादो समयाहियावलियाए वट्टमाणस्स पुव्विल्लसतादो विमेसा हियसतकम्मविसयत्तेग पडिवण्णजणभावत्तादो | जयध०
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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