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Jain Terms Preserved: 58. The jघन्य anुभाग-संतकर्म of मिच्छत्त is done in नरकगति. 59. The जघन्य anुभाग-संतकर्म of the असंज्ञी who has come with हतसमुत्पत्तिक कर्म continues as long as he binds new कर्म under the स्थितिसत्त्व. 60-62. The जघन्य anुभाग-संतकर्म of सम्यक्त्व is of the चरिमसमय अक्षीणदर्शनमोहनीय. 63. There is no जघन्य for सम्यग्मिच्छत्त in नरकगति. 64. The जघन्य anुभाग-संतकर्म of अनंतानुवंधी कषाय is like ओघ. 65. This principle is to be understood everywhere. 66-68. The उत्कृष्ट anुभाग-संतकर्म of मिच्छत्त lasts for a minimum of अन्तर्मुहूर्त. 69. The अनुक्कस्स anुभाग-संतकर्म.
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________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति काल-निरूपण ५८. णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं करत १ ५९. असण्णिस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स जाव हेहा सतसम्मस्स बंधदि ताय । ६०, एवं यासकसाय-णवणोकसायाणं । ६१. सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतसम्म कस्स ? ६२. चरिमसमयअक्खीणदंमणमोहणीयस्स । ६३. सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं णस्थि । ६४. अणंताणुवंधीणमोघं । ६५. एवं सव्वत्थ णेदव्यं । ६६. कालाणुगमेण । ६७. मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागमंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि १ ६८. जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ६९ अणुक्कस्सअणुभागसंतकम्म चूर्णिमू-नरकगतिमे मिथ्यात्वकर्मका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ आया हुआ असंज्ञी जीव जब तक विद्यमान स्थितिसत्त्वके नीचे नवीन वन्ध करता है, तबतक उसके मिथ्यात्वकर्मका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है ।।५८-५९॥ विशेषार्थ-जो असंज्ञी जीव मिथ्यात्वकर्मके घात करनेसे अवशिष्ट बचे अनुभागसत्कर्मके साथ नरकमे उत्पन्न होता है, उसके एक अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है, क्योकि, तभीतक उसके विद्यमान स्थितिसत्त्वसे नीचे वन्ध होता है । चूर्णिसू०-इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण आदि वारह कपाय और हास्यादि नव नोकषायोके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व जानना चाहिए । अर्थात् हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ नरकमे उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी जीवके उक्त प्रकृतियोका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है। सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? चरमसमयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहनीयकर्मवाले जीवके होता है ॥६०-६२॥ विशेषार्थ-यद्यपि नरकगतिमे दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता है, तथापि मनुष्यगतिमे दर्शनमोहके क्षपणके पूर्व जिसने नरकायुका वन्ध कर लिया, वह जीव मनुष्यभवमे दर्शनमोहका भपण कर कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वी होकर जव नरकगतिमे उत्पन्न होता है, तब उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म पाया जाता है । चूर्णिसू०-नरकगतिमे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता है । क्योकि, दर्शनमोहकी क्षपणाको छोड़कर अन्यत्र सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागकांडकोका घात नहीं पाया जाता । नरकगतिमे अनन्तानुवन्धी चारो कपायोका जघन्य अनुभागसत्कर्म ओघके समान जानना चाहिए । इसी प्रकार सर्वत्र अर्थात् शेप गतियोमे और इन्द्रियादि शेप मार्गणाओमें मिथ्यात्व आदि मोहप्रकृतियोका जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म आगमके अविरोधसे जान लेना चाहिए ॥६३-६५।। चूर्णिसू०-अब कालानुगमकी अपेक्षा एक जीव-सम्बन्धी अनुभागविभक्तिका काल कहते है -- मिथ्यात्वप्रकृति के उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवका किनना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६६-६८ ॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागसन्यका जघन्य और उत्कृष्टफाल अन्तर्मुह
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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