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English Translation (preserving Jain terms): 5. The Sammattas (right believers) have the first Desaghati (partial destructive) Spardhakas (competitors) starting from the initial one up to the last Desaghati Spardhakas. 6. The Anubhaga (intensity) Satkamma (meritorious karma) of Samyagmithyatva (mixed right and wrong belief) is the Sarvaghati (totally destructive) Adiphaddaga (initial competitor) starting from the initial one up to the Daruasamana (like wood) Anantabhaga (infinite part). 7. The Mithyatva (wrong belief) Anubhaga Satkamma, in which the Anubhaga Satkamma of Samyagmithyatva is embedded, is Anantaraphaddaga (subsequent competitor) above it, which is Apratisiddha (unobstructed). 8. The Anubhaga Satkamma of the Dvadasakasaya (twelve passions) is the Dushthanikamadiaphaddaga (initial competitor of the impure ones) starting from the initial one, which is Apratisiddha (unobstructed) above.
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________________ गा० २२] उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति स्पर्धक-निरूपण १५७ ५. सम्मत्तस्स पहमं देसघादिफयमादि कादूण जाव चरिमदेसघादिफद्दगं ति एदाणि फद्दयाणि । ६. सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वधादि आदिफदयमादि कादूण दारुअसमाणस्स अणंतभागे णिहिदं । ७. मिच्छत्तअणुभागसंतकम्म जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिद्विदं तदो अणंतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध। ८. वारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्यधादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादि कादूण उवरिमप्पडिसिद्ध। चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रथम लतास्थानीय सर्व जघन्य देशघाती स्पर्धकको आदि लेकर दारुके अनन्त बहुभागस्थानीय अन्तिम देशघाती सर्वोत्कृष्ट स्पर्धक तक इतने स्पर्धक होते है ॥५॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति देशघाती है, अतएव उसकी अनुभागशक्तिके स्पर्धक लतास्थानीय सर्व मन्दशक्तिवाले प्रथम स्पर्धकसे लगाकर दारुस्थानीय अनुभागशक्तिके अनन्त बहुभाग तक स्पर्धकोका जितना प्रमाण है, वे सब सम्यक्त्वप्रकृतिक स्पर्धक कहलाते है। " चूर्णिसू०-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और वह अपने आदि स्पर्धकको आदि करके दारुसमान अनुभागके अनन्तवे भाग जाकर उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त होता है ॥६॥ विशेपार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति द्विस्थानीय सर्वघाती है, अतएव जहॉपर देशघाती सम्यक्त्वप्रकृतिका सर्वोत्कृष्ट अन्तिम स्पर्धक समाप्त होता है, उसके एक स्पर्धक ऊपरसे अनुभागकी सर्वघाती शक्ति प्रारम्भ होती है और यही सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सर्व जघन्य सर्वघाती स्पर्धक कहलाता है। इसे आदि लेकर ऊपर जो दारुस्थनीय अनुभागशक्तिका अनन्तवाँ भाग बचा था, उसके उपरितन एक भागको छोडकर अधरतन बहुभागके अन्तिम स्पर्धक तक सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभागशक्तिका सर्वोत्कृष्ट स्थान है। उसके एक स्पर्धक ऊपर जानेपर मिथ्यात्व प्रकृतिका सर्वजघन्य सर्वघाती अनुभाग प्रारम्भ होता है और वहॉसे एक एक म्पर्धक ऊपर बढ़ता हुआ दारुके अवशिष्ट अनन्तवे भागको, तथा अस्थिसमान और शैलसमान स्थानोके समस्त स्पर्धकोको उल्लंघनकर अपने उत्कृष्ट स्थानको प्राप्त होता है। इसी उपयुक्त कथनको स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार उत्तर सूत्र कहते है चर्णिमू०-जिस स्थानपर सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मस्थान निष्पन्न हुआ है, उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे आरंभकर उपर शैलस्थानीय अनुभागशक्तिके अन्तिम स्पर्धक प्राप्त होने तक मिथ्यात्वप्रकृतिके अनुभागसत्कर्म अप्रतिपिद्ध अवस्थित हैं, अर्थात वरावर चले जाते हैं । अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायर्याका अनुभागसत्कर्म सर्वधातियोके द्विस्थानीय आदि स्पर्धकको आदि करके ऊपर अप्रतिषिद्ध है ।।७-८॥ विशेषार्थ-नेशघाती अनुभागके ऊपर जहाँसे सर्वघाती अनुभाग प्रारभ होता है, वह अनन्तानुवन्धी आदि बारह कपायोके अनुभागका सर्वजघन्य स्थान है । उससे एक एकम्पक
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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