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Gati-vibhakti-swamitva-niroopana 23. Gadisu anumargidavvam. 24. Ekajivena saamittam. 25. Mithyatvasya utkrshtavidhi-vibhakti kasya? 26. Utkrshta-bandhamana-sya. 27. Evam sholashakaashaayanam. 28. Samyaktva-samyagmithyatvaanaam utkrshta-vidhi-vibhakti kasya? 29. Mithyatvasya utkrshta-hiti-bandhituna antomuhurttaddha patibbhaggo' jo dvidighaadam akaaduna sabbalahu samyatta pativannno tasya pathama-samayaveda-yasammaadihissa.
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________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-स्वामित्व-निरूपण २३. गदीसु अणुमग्गिदव्वं । २४. एयजीवेण सामित्तं । २५. मिच्छत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती कस्स ? २६. उक्कस्सहिदि बंधमाणस्स । २७. एवं सोलसकसायाणं । २८. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती कस्स ? २९. मिच्छत्तस्स उक्कस्स हिदि बंधिदूण अंतोमुहुत्तद्ध पडिभग्गो' जो द्विदिघादमकादूण सबलहु सम्मत्त पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिहिस्स । संख्यात वर्पप्रमाणकी स्थिति शेष रहनेपर छह नोकपायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अतएव उनकी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल संख्यात वर्प उपलब्ध हो जाता है। ओघके समान ही आदेशमे भी जघन्य स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिए, यह बतलानेके लिए यतिवृषभाचार्य समर्पणसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-गतियोमे (तथा इन्द्रिय आदि शेष समस्त मार्गणाओमें) जघन्य स्थितिविभक्तिके कालका उक्त प्रकारसे अनुमार्गण करना चाहिए ॥२३॥ सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति आदि अनुयोगद्वारोके सुगम होनेसे उन्हे न कहकर एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वानुयोगद्वारके कहनेके लिए यतिवृपभाचार्य प्रतिज्ञासूत्र कहते है चूर्णिसू०-अब एक जीवकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिके स्वामित्वको कहते है ॥२४॥ स्वामित्व दो प्रकारका है, जघन्य और उत्कृष्ट । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा पृच्छापूर्वक उत्तर देते हुए उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति के स्वामित्वका निरूपण करते है चूर्णिसू०-मिथ्यात्वप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ॥२५-२६॥ चूर्णिसू०-जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका निरूपण किया, उसी प्रकारसे अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए, क्योकि, तीव्र संक्लेशसे उत्कृष्टस्थितिको बाँधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवमे ही इन सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका पाया जाना संभव है, अन्यत्र नहीं ॥२७॥ चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर पुनः अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रतिभग्न हुआ अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे प्रतिनिवृत्त एवं तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे अवस्थित जो जीव स्थितिघातको नहीं करके सर्वलघुकालसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, ऐसे प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ॥२८-२९॥ विशेषार्थ-मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाला, तीव्र संक्लेशपरिणामी, साकार और जागृत उपयोगसे उपयुक्त जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वसे गिरकर १. पडिभग्गो उक्स्सटिदिवधुक्कस्ससकिलेसेहि पडिणियत्तो होदृण विसोहीए पडिदो त्ति मणिदं होदि । जयध० १३
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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