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Gāthā 22] Sthitivibbhakti-pramāṇānugama-nirūpaṇa 12. Soḷasaṇhaṃ kasāyāṇamukkaṭṭhahidivihattī cattālīsasāgarovamakodākodīo paḍivuṇṇāo. 13. Evaṃ ṇavanoakasāyāṇaṃ, ṇavari āvalīūṇāo. 14. Evaṃ savvāsu gadīsu ṇeyyavvo. The translation is as follows: 12. The highest duration-division (sthitivibbhakti) of the sixteen passions (kasāya) is forty-two sāgarovama-koḍākoḍī. 13. Similarly, the highest duration-division of the nine no-kasāyas is one āvalī less than forty-two sāgarovama-koḍākoḍī. 14. In this way, it should be understood in all the gatis (states of existence).
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________________ गा० २२] स्थितिविभक्ति-प्रमाणानुगम-निरूपण १२. सोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीओ पडिवुण्णाओ। १३. एवं णवणोकसायाणं, णवरि आवलिऊणाओ। १४. एवं सव्यासु गदीसु णेयव्यो। तीन भाग हो जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्वप्रकृतिके तीन भाग हो जानेपर अट्ठाईस मोहप्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यात्वको प्राप्त हो मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध कर अन्तर्मुहूर्त पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो और अवशिष्ट अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम स्थितिको सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमे ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिमे संक्रमाता है। इस प्रकार इन दोनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बन जाता है । इस प्रकार दर्शनमोहकी तीनो प्रकृतियोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका प्रमाण वताकर अब चारित्रमोह-सम्बन्धी सोलह कषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल बतलानेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिम् ०-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन, इन चारोके क्रोध, मान, माया और लोभरूप सोलह कपायोका उत्कृष्ट स्थिति-विभक्तिकाल पूरा चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है ॥१२॥ विशेषार्थ-इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट संक्लेशवाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वॉधे हुये कार्मणवर्गणास्कन्धोंका सोलह कपायरूपसे परिणमन होकर सकल जीवप्रदेशोपर समयाधिक चार हजार वर्प-प्रमित आवाधाकालको आदि लेकर चालीस कोड़ाकोड़ीसागरोपमकाल तक निरन्तर कर्मस्वरूपसे अवस्थान पाया जाता है । अब नव नोकषायोका उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकाल कहने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू०-इसी प्रकार नव नोकषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि यह आवलिप्रमाण कम है ॥१३॥ विशेषार्थ-नव नोकषायोकी स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागरोपम होता है । इसका कारण यह है कि सोलह कपायोकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेके अनन्तर और बंधावलीकालको विताकर एक आवली कम चालीस कोडाकोड़ी सागर-प्रमाण उक्त कपायकी स्थितिको नव नोकपायोमे संक्रमणकर देनेपर नव नोकपायोकी स्थिति-विभक्तिका सूत्रोक्त उत्कृष्टकाल सिद्ध हो जाता है । चूर्णिसू ०-जिस प्रकार ऊपर ओघकी अपेक्षा स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल बतलाया गया है, उसी प्रकार सभी गतियोमे जानना चाहिए ॥१४॥ विशेषार्थ-चूर्णिकारने इस सूत्रके द्वारा सर्वगतियोमे और शेप सर्वमार्गणाओमें अद्धाच्छेदके जाननेकी सूचना की है, सो विशेप जिज्ञासु जन इसके लिए जयधवला टीका को देखें।
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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