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Kasaya Pahuda Sutta [The three-fold division of the nature of bondage (bandha) into the lowest (jaghanya) and the non-lowest (ajaghanya) is discussed in the Anuyogadvara named Jaghanyavibhakti and Ajaghanyavibhakti.] 1. Sadi-Anadi, Dhruva-Adhruva Bandha Prarūpanā - The bondage that occurs once and then stops, and then occurs again is called Sadibandha. And the bondage that has been occurring continuously from beginningless time is called Anādibandha. The bondage that occurs continuously for the non-attained (abhavya) is called Dhruvabandha, and the bondage that occurs occasionally for the attained (bhavya) is called Adhruva-bandha. The consideration of these four types of bondage is done in the Anuyogadvāras named Sādivibhakti, Anādivibhakti, Dhruvavibhakti, and Adhruva-vibhakti respectively. 2. Svāmitva-Anurūpanā - The consideration of in whom the highest, non-highest, lowest, and non-lowest bondage of the Mohanīya-karma occurs is done in the Anuyogadvāra named Svāmitva. 3. Bandha-Kāla Prarūpanā - The consideration of how long the highest, non-highest, lowest, and non-lowest bondage of each karma continuously occurs for a single soul is done in the Kāla Anuyogadvāra.
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________________ कसाय पाहुड सुत्त [३ स्थितिविभक्ति उनके उत्तर प्रकृतियोके जघन्यवन्ध और अजघन्यबन्धका विचार जघन्यविभक्ति और अजघन्यविभक्तिनामक अनुयोगद्वारमे किया गया है । 'सादि-अनादि तथा ध्रुव-अध्रुव वन्धप्ररूपणा-कर्मका जो बंध एक वार होकर और फिर रुककर पुनः होता है वह सादिवन्ध कहलाता है और बन्ध-व्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादिकालसे जिसका वन्ध होता चला आरहा है वह अनादिबन्ध कहलाता है । अभव्योंके निरन्तर होनेवाले वन्धको ध्रुववन्ध कहते है और कभी कभी होनेवाले भव्योके बन्धको अध्रुववन्ध कहते हैं । इन चारो ही प्रकारके वन्धोका विचार क्रमशः सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति और अध्रुवविभक्ति नामके अनुयोगद्वारोमे किया गया है । "स्वामित्वनरूपणा-स्वामित्व-अनुयोगद्वारमे मोहकर्मका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य वन्ध किस-किस जीवके होता है इस वातका विचार किया गया है । जैसे-मोहकर्मकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध सर्व पर्याप्तियोसे पर्याप्त, साकार और जाग्रत उपयोगसे उपयुक्त, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोसे या ईषन्मध्यम परिणामोसे परिणत, किसी भी संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवके होता है। इस प्रकारसे सर्व कर्मोके और उनकी एक-एक प्रकृतिके स्थितिबन्धका स्वामी तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणाम या विशुद्ध परिणामवाला जीव होता है । इस सबका विवेचन स्वामित्व अनुयोगद्वारमे किया गया है। बन्ध-कालप्ररूपणा-कालानुयोगद्वारमें एक जीव की अपेक्षा प्रत्येक कर्मका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्यरूप वन्ध लगातार कितनी देर तक होता है इस वातका विचार १ सादि-अणादि-धुव-अद्धवबंधपरूवणा-यो सो सादियबधो अणादियवधो धुवबधो अववधो णाम, तस्स इमो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्ताह कम्माण उकस्स० अणुकस्स० जहण्णबधो किं सादि० अणादिय० धुव० अश्व० ? सादिय अद्भुववधो । अजहण्णबधो । कि मादि० ४ १ सादियवधो वा अणाटियवधो वा धुववधो वा अदुवबंधो वा । ( महावं०)। सादि० ४ दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक० अणुक्क० जह० कि सादि० ४ १ सादि० अदुव० । अजह ° किं सादि० ४ १ अणादिय० धुवो वा अद्धवो वा | जयध० २ सामित्तपरूवणा-सामित्त दुविध-जहष्णयं उकस्सग च । उकस्सेण पगद । दुविधो णिहसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सत्तण्हं कम्माण उकस्सटिदिबधो कत्स होदि ? अण्णदरस्स पचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिस्सि सव्याहि पजत्तीहि पजत्तगस्स सागार-जागारुवजोगजुत्तरस उकास्सियाए ठिदीए उक्कस्सट्ठिदिस किलेसेण वट्टमाणयन्स अथवा ईसिमझिमपरिणामस्स वा Ixxx जहण्णगे पगढ । दुविधो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहस्स जहण्णओ ठिदिवधो कस्स होदि १ अण्णदरस्स खवगअणियहिस्स चरिमे ममए वट्टमाणस्स । ( महाव०) । सामित्त दुविध-जहण्ण उकरम च । तत्थ उकस्से पयद । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्य ओघेण (मोहणीयस्स) उक्कन्सट्टिदी कस्स ? अष्णदरस्स, जो चउठाणियजवमज्झस्स उवरि अतोकोडाकोडिं बधतो अच्छिदो उकस्ससकिलेस गदो । तदो उकास्मट्टिदी पबद्धा, तत्स उक्कस्सय होदि Ixxx जहष्णए पयद । दुविहो णिह सो-ओषेण आदेसेण य । तत्य ओघेण मोहणीयस्स जद्दण्णट्दिी कस्स ? अण्णदरस्त खवगत्स चरिमसमयसकसायरस जहण्णटिठटी | जयघ० ३ बंधकालपरूवणा-वधकाल दुविध-जहष्णय उकस्मय च । उकम्सए पगट | दुवित्रो णिमाओघेण आदेमेण य । तत्थ मोघेण सत्तण्ह कम्माण उत्सओ टिटिबंधो केवचिर कालाटो होटि १ जाणेण
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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