SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## Chapter 22: Description of the Divisions of Nature, Time, and Duration **88.** The duration of the twenty-eight divisions of nature is countless, like the number of sand particles. **89.** What is the shortest duration of the twenty-eight divisions of nature? It is the **Antarmūhurta**. **90.** The longest duration of the twenty-eight divisions of nature is **two times sixty-four oceans** (Saagara) plus countless sand particles.
Page Text
________________ गा० २२] प्रकृतिस्थानविभक्ति-काल-निरूपण ८८. उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । ८९. अट्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोसुहुत्तं । ९०. उक्कस्सेण बेछावहि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चूर्णिसू०-सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ॥८८॥ विशेपार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टिजीवके द्वारा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना किये जानेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति होती है । तत्पश्चात् सर्वोत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाणकालके द्वारा जवतक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है, तबतक वह सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका स्वामी रहता है, अतः सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग कहा है। __चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तमुहूर्त है ॥८९॥ विशेषार्थ-मोहकी छब्बीस प्रकृतियोकी सत्तावाले किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्ता स्थापित की, तथा सर्व-जघन्य अन्तमुहूर्तकाल तक उन अट्ठाईस प्रकृतियोकी सत्ताके साथ रहकर तत्पश्चात् अनन्तानुबन्धीकपायचतुष्कका विसंयोजन किया और चौबीस प्रकृतियोकी सत्ता प्राप्त की, तब उसके अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्यकाल पाया जाता है । चूर्णिसू०-अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्तिका उत्कृष्टकाल सातिरेक दो छयासठ सागरोपम है ॥९०॥ विशेषार्थ-उक्त काल इस प्रकार संभव है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर अट्ठाईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ । पीछे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृतिके पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट उद्वेलनाकालमे अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रहनेपर सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला होना चाहिए था, पर वह न होकर उद्वेलनाकालके द्विचरम समयमे मिथ्यात्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके चरमनिपेकका अन्त करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् पूर्व निरूपित क्रमसे वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर और प्रथम वार छयासठ सागरोपमकालको सम्यक्त्वके साथ बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पुनः पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालके चरमसमयमे उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हो और पूर्वकी भॉति ही द्वितीय वार छयासठ सागरोपमकाल सम्यक्त्वके साथ बिताकर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण सर्वोत्कृष्ट सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलनाकालके द्वारा सत्ताईस प्रकृतियोकी विभक्ति करनेवाला हुआ । इस प्रकारसे पल्योपमके उक्त तीन असंख्यातवे भागोंसे अधिक दो
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy