SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## Kasaya Pahud Sutra **[2 Prakriti Vibhakti 73. Thus, two, three, and four Prakriti-rupa sattvasthana vibhaktis have a jghanya and utkrisht kal of antarmuhurt. 74. Five Prakriti-rupa sattvasthana vibhaktis have a jghanya and utkrisht kal of one samaya less than two avalis. 75. Eleven, twelve, and thirteen Prakriti-rupa sattvasthana vibhaktis have a jghanya and utkrisht kal of antarmuhurt. 76. Specifically, twelve Prakriti-rupa sattvasthana vibhaktis have a jghanya kal of one samaya. 73-76.]** - **Specifically** - The jghanya kal of twelve Prakriti vibhaktis is one samaya, which is possible in this way...
Page Text
________________ " कसाय पाहुड सुत्त [२ प्रकृतिविभक्ति ७३. एवं दोण्हं तिण्हं चदुण्हं विहत्तियाणं । ७४. पंचण्हं विहत्तिओ केवचिरं कालादो होदि १ जहण्णुकस्सेण दो आवलियाओ समयूणाओ। ७५. एक्कारसण्हं वारसण्हं तेरसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ७६. णवरि वारसण्हं विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहण्णेण एगसमओ । कम दो आवली प्रमाणकालसे कम, लोभसंज्वलनकी प्रथम, द्वितीय वादरकृष्टि और सूक्ष्मलोभकृष्टिके क्षपण करनेका जो काल है, वही एक प्रकृतिसत्त्वस्थानकी विभक्तिका जघन्यकाल है । इस प्रकार एक प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। इसका उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है, तथापि वह जघन्यकालसे संख्यातगुणा होता है। एक प्रकृतिकी विभक्तिका जघन्यकाल तो पुरुपवेद और क्रोधकषायके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है, किन्तु उत्कृष्टकाल पुरुपवेद और लोभसंज्वलनकषायके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है । इसका कारण यह है कि क्रोधसंज्वलनके उदयके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके जिस समय मानसंज्वलनसम्बन्धी तीन कृष्टियोका क्षय होता है, उस समय लोभसंज्वलनके उदयके साथ आपकश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव एक प्रकृतिकी सत्तावाला हो जाता है, इसलिए क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोके वेदनका जो काल है, वह सब लोभके उदयसे चढ़े हुए इस जीवके एक विभक्तिकालके भीतर आजाता है, अतएव इसका काल जघन्यकालसे संख्यातगुणा हो जाता है। ऊपर पूरी क्षपकश्रेणीका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया गया है, और उसके भीतर होनेवाली इन अनेको विभक्तियोका काल भी पृथक् पृथक् अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है, फिर भी कोई विरोध नहीं समझना चाहिए, क्योकि एक अन्तर्मुहूर्तके भी संख्यात भेद होते है, अतएव उन सव विभक्तियोके कालमे अपेक्षाकृत कालभेद सिद्ध हो जाता है। विभक्ति क्या वस्तु है, किस विभक्तिके कालका प्रारम्भ कहॉसे होता है, और समाप्ति कहॉपर होती है, इत्यादिका निर्णय ऊपरके विवेचनसे भली-भाँति हो जाता है । हॉ, अन्तरकरण, अश्वकर्णकरण, बादरकृष्टि आदि जो पारिभाषिक संज्ञाएँ आई है, सो उनका स्वरूप आगेके अधिकारोमें यथास्थान स्वयं चूर्णिकारने कहा ही है। चूर्णिसू०-इसी प्रकारसे दो, तीन और चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तियोका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। पांच प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितनाकाल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवलीप्रमाण है । ग्यारह, वारह, और तेरह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेप वात यह है कि वारह प्रकृतिरूप सत्त्वस्थानकी विभक्तिका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय है ।।७३-७६।। - विशेपार्थ-बारह प्रकृतिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय इस प्रकार संभव है
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy