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[Verse 17-18] The minimum duration of mana-kashaya (pride), krodha-kashaya (anger), maya-kashaya (deceit), and lobha-kashaya (greed), as well as kshudrabhavagrahana (acquisition of inferior existence) and krishlkarana (deformation), should be understood to be progressively longer. The minimum duration of samkramana (transference), apavartana (diversion), upasamta-kasaya (subsided passions), kshinamoha (destroyed delusion), upashamaka (quiescent), and ksapaka (destructive), should be understood to be progressively longer.
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________________ गा० १७-१८] अद्धापरिमाण-निर्देश माणद्धा कोहद्धा मायद्धा तहय चेव लोहद्धा । खुद्दभवग्गहणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वा ॥१७॥ संकामण-ओवट्टण-उवसंतकसाय-खीणमोहद्धा। उवसातय-अद्धा खत-अद्धा य बोद्धव्वा ॥१८॥ जो घोरातिघोर दुस्सह उपसर्ग सहन करते हुए केवलज्ञान प्राप्तकर शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष चले जाते हैं, उन्हींके केवलदर्शन और केवलज्ञानका यह जघन्य काल सम्भव है, अन्यके नहीं । मानकषाय, क्रोधकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय, तथा क्षुद्रभवग्रहण और कृष्टीकरण, इनका जघन्य काल उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक है ऐसा जानना चाहिए ॥१७॥ विशेषार्थ--क्षपक सूक्ष्मसाम्परायसंयतके जघन्यकालसे मानकषायका जवन्य काल विशेप अधिक है। मानकपायके जघन्यकालसे क्रोधकषायका जघन्य काल विशेष अधिक है । क्रोधकषायके जघन्यकालसे मायाकपायका जघन्य काल विशेष अधिक है । मायाकपायके जवन्यकालसे लोभकपायका जघन्य काल विशेष अधिक है। लोभकषायके जघन्यकालसे लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्षुद्रभवग्रहणका काल विशेष अधिक है। लब्ध्यपर्याप्त जीवके क्षुद्रभवग्रहणके कालसे कृष्टीकरणका काल विशेष अधिक है। यह कृष्टीकरण-सम्बन्धी जघन्य काल लोभकपायके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके होता है और कृष्टीकरण-क्रिया भी क्षपकश्रेणीके अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अन्तमे होती है। __ संक्रामण, अपवर्तन, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, उपशामक और क्षपक, इनके जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक जानना चाहिए ॥१८॥ विशेषार्थ-अन्तरकरण करनेपर नपुंसकवेदके क्षपण करनेको संक्रामण कहते हैं। नपुंसकवेदके क्षय कर देनेपर शेष नोकपायोके क्षपण करनेको अपवर्तन कहते है। ग्यारहवे गुणस्थानवर्ती जीवको उपशान्तकपाय और बारहवे गुणस्थानवर्ती जीवको क्षीणमोह कहते है। उपशमश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव जब मोहनीय कर्मका अन्तरकरण कर देता है, तव उसकी उपशामक संज्ञा हो जाती है। इसी प्रकार जब क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाला जीव मोहकर्मका अन्तरकरण कर देता है, तब उसकी क्षपक संज्ञा हो जाती है। इनका काल इस प्रकार है--कृप्टीकरणके जघन्यकालसे संक्रामणका जघन्य काल विशेप अधिक है । संक्रामणके जघन्य कालसे अपवर्तनका जघन्य काल विशेष अधिक है । अपवर्तनके जघन्य कालसे उपशान्तकपायका जघन्य काल विशेप अधिक है। उपशान्तकपायके जघन्य कालसे क्षीणमोह गुणस्थानका जघन्य काल विशेप अधिक है। क्षीणमोहके जघन्य कालसे उपशामकका जघन्य काल विशेप अधिक है। तथा उपशामकके जघन्य कालसे आपकका जघन्य काल विशेष अधिक है।
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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