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[Verse 13-14] 64. This is the Naigarma (Nairgranthas) view. 65. Rasa-kasayas are substances having the nature of kasaya-rasa, or substances which are kasayas. 66. That which is other than that (i.e. other than rasa-kasayas) is non-kasaya, or substances which are non-kasayas. 67. This is the Naigarma-samgraha view. 68. According to the Vyavahara-naya, the substance having the nature of kasaya-rasa is kasaya, and that which is other than that is non-kasaya. The substances having the nature of kasaya-rasa are kasayas, and those which are other than that are non-kasayas.
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________________ गा० १३-१४] कषायोंमें निक्षेप-निरूपण ६४. एदं णेगमस्स । ६५. रसकसाओ णाम कसायरसं दव्यं, दव्याणि वा कसाओ । ६६. तव्वदिरित्त दवं, दव्वाणि वा णोकसाओ । ६७. एदं णेगम-संगहाणं । ६८. ववहारणयस्स कसायरसं दव्वं कसाओ, तव्वदिरित दव्यं णोकसाओ । कसायरसाणि दब्वाणि कसाया, तव्यदिरित्ताणि दव्याणि णोकसाया । हैं । भित्ती-दीवाल-आदिपर चित्राम करनेको लेप्यकर्म कहते हैं । इनमें अथवा इस प्रकारके अन्य भी कर्मोंमे क्रोधादि कषायोके जो आकार उकेरे, खोदे, बनाये या लिखे जाते है, वे सब आदेशकषाय कहलाते है। अव इन कपायोके स्वामिभूत नयोका प्रतिपादन करते है चूर्णिसू०-यह समुत्पत्तिककषाय और आदेशकपाय नैगमनयके विषय होते है। इसका कारण यह है कि शेष नयोके विषयभूत प्रत्ययकषाय और स्थापनाकषायमे यथाक्रमसे समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषायका अन्तर्भाव हो जाता है ॥६४॥ अब रसकषायके स्वरूपका प्रतिपादन करते हैं चूर्णिसू०-कसैले-रसवाला एक द्रव्य अथवा अनेक द्रव्य रसकषाय कहलाते है ॥६५॥ अब नोकपायका स्वरूप कहते है चूर्णिसू०-रसकषायसे व्यतिरिक्त एक द्रव्य, अथवा अनेक द्रव्य नोकषाय कहलाते है । यह नोकषाय नैगमनय और संग्रहनयका विषय है । क्योकि, इस नोकषायमे कषायसे भिन्न समस्त द्रव्योका संग्रहस्वरूप व्यवहार देखा जाता है ॥६६-६७॥ चूर्णिसू०-व्यवहारनयकी अपेक्षा कपायरसवाला एक द्रव्य कषाय है, और उससे व्यतिरिक्तद्रव्य नोकपाय है । तथा कपायरसवाले अनेक द्रव्यकषाय कहलाते है और कपायरसवाले द्रव्योसे भिन्न द्रव्य नोकषाय कहलाते हैं ॥६८॥ विशेषार्थ नैगमनय भेद और अभेदको प्रधानता और अप्रधानतासे विषय करता है, तथा संग्रहनय एक या अनेकको एक रूपसे ग्रहण करता है, इसलिए इन दोनो नयोकी अपेक्षा कपाय-रसवाले एक या अनेक द्रव्योको एकवचन कषायशब्दके द्वारा कहनेमे कोई आपत्ति नहीं आती। परन्तु व्यवहारनय एकको एकवचनके द्वारा और वहुतको वहुवचनके द्वारा ही कथन करता है, क्योकि वह भेदकी प्रधानतासे वस्तुको विपय करता है। यदि व्यवहारनयकी अपेक्षा एक वस्तुको बहुवचनके द्वारा कहा जायगा, तो श्रोताको संदेह होगा कि वस्तु तो एक है और यह उसे बहुवचनके द्वारा क्यो कह रहा है। यही संदेह बहुत वस्तुओको एकवचनके द्वारा कहनेमे भी होगा । अतएव नैगम और संग्रहनयके द्वारा एक द्रव्य या अनेक द्रव्योको एकवचनसे कहे जानेपर भी असंदिग्ध प्रतीतिके लिए व्यवहारनय एक द्रव्यको एक वचनके द्वारा और अनेक द्रव्योको वहुवचनके द्वारा ही कथन करता है, यही तीनो नयोके विपयोमे अन्तर है ।
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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