SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) भद्रवाह के समय में नत्रमानंद पटणा में राज्य करता था, उनका शिष्य नन्द राजा का प्रधान का पुत्र स्थूलभद्रजी है जो कि यद्यपि कल्प सूत्र उनका रचा हुआ है तो भी २४ तीर्थंकरों के चरित्र के बाद स्थविरावली है वह देवर्द्धि क्षमा श्रमण तक की है तो देवर्द्धि क्षमा श्रमण के शिष्य की रची हुई हैं ऐसा संभव होता है जिस समय कि सूत्र सब लिखे गये उससे पहिले सिर्फ मुंह- पाठ करके साधू साध्वी उसका लाभ लेते थे. समाचारी को अंत में रखने का कारण यह हैं कि चरित्रों में विधि मार्ग व्याघात रूप न होने. ज्ञान की मंदता से आज से १००० वर्ष पूर्व के आचार्यों ने अपना गच्छ का मंतव्य मुकर्रर कर युक्ति को मंतव्य में खेचकर जैन समाज में लाभ के घले कुछ हानि का संभव (गच्छकदाग्रह) भी खड़ा किया है आनंदघनजी महाराज ने २५० वर्ष पहिले १४ व तीर्थकर के स्तवन में बताया हैं कि " गच्छना भेद बहुनयण निहालतां तत्वनी वात करतां न लाजे " इसलिये भव्यात्मा मुमुक्षुओं से प्रार्थना है कि कोई भी गच्छ का क्लेश छोड़ सिर्फ साधू के क्षमा, कोमलता, सरलता, निर्लोभतादि दश उत्तम गुणों को धारण कर अपनी परम्परा से चली हुई विधि अनुसार दूसरों की निंदा किये बिना मध्यस्थ भाव में रहकर कल्प सूत्र के कल्पानुसार श्रात्मा निर्मल करना, पूर्व कर्मों को समता से सुख दुःख में धीरता रखकर भोगना दूसरे जीवों को समाधि उत्पन्न कराना अपनी युक्ति, बुद्धि का ऐसा उपयोग करना कि अन्य पुरुषों को अपनी परमार्थ वृत्ति ही नजर आवे. पहिला व्याख्यान में नवकल्पों का वर्णन और महावीर प्रभुका चरित्र की शरुआत होती है, और महावीर प्रभु को देवा नंदाकी कुक्षिमें देख कर सौधर्म इंद्र देवलोक में जो बैठा है उसने प्रभु को नमस्कार किया. और नमुत्थुणं का पाठ पढा. दूसरे व्याख्यान में प्रभु की ब्राह्मणी की कुक्षि में देखकर क्षत्रि राजवंशी कुल में प्रभु को बदलने का विचार किया और ऐसे दश आचर्य बताकर प्रभु के २७ भवों का वर्णन बताया और त्रिशला देवी की कुक्षि में बदलने पर उसने १४ स्त्रम देखे. उनमें से ४ स्वप्नों तक का वर्णन है. तीसरे व्याख्यान में बाकी के दश स्मों का वर्णन और त्रिशला राखी का ·
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy