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________________ (=) और नाम संस्कार के समय नागकेतु नाम स्थापित किया. विद्या पढकर व धर्म की उत्तम शिक्षा पाकर वह बालक अर्थात नागकेतु नित्य सामायिक देव पूजन प्रतिक्रमण इत्यादि शुभ क्रियाओं को करना हुवा समय बिताने लगा । परोपकार तन, मन, और घन तीनों से करने लगा और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को मुख्य मानकर यथाशक्ति समय पर पीपत्र इत्यादि करता हुवा अर्थात् एक धर्मात्मा पुरुष तरीके अपना जीवन (आयु) निर्वाह करने लगा | एक समय राजाने एक मनुष्य की चोरी के अपराध में चोर नहीं होते हुए भी शक से शिक्षा के हेतु फांसी की आज्ञा दी, मर्ती समय शुभ परिणाम के रहने से वो मनुष्य व्यंतर देव हुवा, अवधि ज्ञान द्वारा राजा को पूर्व भव में फांसी की आज्ञा देने वाला जानकर उसको द्वेष बुद्धि उत्पन्न हुई और अपनी शक्ति द्वारा राजा को सिंहासन से नीचे गिरा दिया और उस सर्व नगरी का नाश करने के हेतु एक नगर के समान लम्बी चौड़ी पत्थर की शिला नगर पर छोड़ दी, नागकेतु ने सर्व जीवों के प्राणों को बचाने और जिन मंदिरों की रक्षा करने के हेतु एक मंदिर के शिखर की चोटी पर चढकर और पञ्च परमेष्ठि मंत्र का जाप कर उस महान् शिला को अपनी ऊंगली पर रोकली, देवता भी उसके तेज से घबरा गया तत्र नागकंतु ने देवता को सदुपदेश दिया जिससे उसने शिला पीटी हटाई. राजा को भी अच्छा किया सर्व नग्र के लोक नागकेतु की स्तुति करने लगे । एक समय नागकेतु जिनेश्वर भगवान् की पूजा कर रहा था उस समय एक तंबोलिया सर्प ने नागकेतु को डसा, परन्तु उस महान परोपकारी पुरुष को जग भी द्वेष उत्पन्न न हुत्रा अपने पूर्व कमों का फल समझकर जिनराज के ध्यान में लीन हुवा उसी समय उसे केवल ज्ञान उत्पन्न हुवा और वहीं देवनाथों ने इसके उपलक्ष्य में पुष्पों की वर्षा की और साधू वेप लाकर उसे दिया जिसे धारण कर अनेक भव्य जीवों को सदुपदेश द्वारा तारने हुए इस प्रसार संसार को त्याग मोक्ष पुरी को सिवायें । हे भव्य जीत्रों ! आप लोग भी इसी प्रकार पर्युषण पर्व में यथाशक्ति तपस्या करें, जिनमंदिर में दर्शन पूजन करें, साधु वंदन, संवत्सरी प्रतिक्रमण इत्यादि धर्म क्रिया करते रहे, चौरासी लाख जीत्र योनी से परस्पर अपराध चपावें और जीव रक्षादि परोपकार से स्वपर को शांति दें । -:-0-0-
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
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