SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३६) विंछु की उत्पनि गावर से भी होती है कहन का सारांश यह है कि कर्तव्य पर नरा शरीर मिलना है चाह पशु हो चाह मनुष्य हा फिर कर्नव्य अनुसार चाह मनुष्य हाव चाहे पशु होव. मुवी स्वामि का समाधान हुया पांचवा गणधर ५०० शिण्यों के माय साधु होगये । __बंध मानकी शंका मंडित दिन को यी स एप विगुणो विभुर्नबध्यते संसरति चा मुच्यते मोचयनि वा, अर्थात् मंसार में जीवन बंधाना है न छुटना है न छु.हाता है. . उपमें परमार्थ यह है कि बानी प्रभु केवल जान से वस्तुधर्म समज कर उसमें नहीं फंसने न छुटने सिर्फ आत्मा में ही रक्त है. उसका समाधान होगया लहागणवर ३५० शिष्यों के साथ साधु इए. . . मार्यपुत्र की शंका देवकं बारे में थी कि कोजानानि माया पमान् गर्वािणान् इंद्रयम वरुणकुवंरादी निति. माया के जैस इंद्रादि कान जानता है ! उसका परमार्थ यह है हेभद्र ! - मुन कि-पुण्य संपत्ति खुटजान से इंद्रादि भी चलित होजात है स्थिर वा भी नहीं है इमलिये देवत्व की भी आकांना नहीं करनी-मुक्तिकाही विचार रखना और तेरे मामने मग ममा में देव वैट है मौर्यपुत्र का समाधान होने से सातवा गणधर ने ३५० शिष्यों के सात दीचा लो. अपित द्विज को नरक की शंका थी कि:नहिं वैत्य नरकं नारकाः नारका वैएपजायते यः शुद्रान्नमध्नाति । . दोनों पदों में भेद क्यों एक में नरक में नारक नहीं दूसरे में शूद्र का अन्न खाने वाला नरक में जाता है प्रभु ने समाधान किया कि हे भट ! पाप दूर होने पर नारक मी नरक में स्थिर नहीं है तो और दुख तो कहना ही क्या है! इसलिये धैर्य रखना उसा उपदेश पूर्व पद में है. अकंपिनजी ने-३०० शिष्यों के साथ दीक्षा ली. अचलभ्राना को पाप के बारे में शंका थी उसका समाधान अग्निभूति के प्रश्नोत्तर से होजाता है. नववा गणधर का समाधान होने से ३०० के साथ दीक्षा ली, '- - प्ररभत्र की मंका दगवां गणघर मेनायजी को “ विझान घन" पद का
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy